Book Title: Shatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 70
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐतिहासिक सार-भाग । ६३ रत्ना साह, विद्यामण्डनसूरि के पास पहुंचा और हर्षपूर्वक नमस्कार तथा स्तवना कर गिरिराज की प्रतिष्ठा पर चलने के लिये संघ के सहित आमंत्रण किया । सूरिजी ने कहा " हे महाभाग ! पहले तुमने जब चित्तोड पर पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ का अद्भुत मन्दिर बनवाया था तब भी तुमने हमको आमंत्रण दिया था परन्तु किसी प्रतिबन्ध के कारण हम तब न आ सके और हमारे शिष्य विवेकमण्डन ने उस की प्रतिष्ठा की थी । परन्तु शचुंजय की यात्रा के लिये तो पहले ही से हमारा मन उत्कण्ठित हो रहा है और फिर जिस में यह तुमारा प्रेमपूर्ण आमंत्रण हुआ । इस लिये अब तो हमारा आगमन हों इस में कहने की बात ही क्या है ? " यह कह कर, सौभाग्यरत्नसूरि आदि अपने विस्तृत शिष्य परिवार से परिवृत हो कर सूरिजी रत्नासाह के साथ, शत्रुजय की और रवाना हुए। वहां का स्थानिक संघ भी सूरिजी के साथ हुआ । अन्यान्य संप्रदाय के भी सेंकडों ही आचार्य और हजारों ही साधु-साध्वीयों का समुदाय, विद्यामण्डनमूरि के संघ में सम्मिलित हुआ और क्रमशः शत्रुजय पहुंचा। कर्मा साह बहुत दूर तक सूरिजी के सन्मुख आया और बडी धामधूम से प्रवेशोत्सव कर उन का स्वागत किया। गिरिराज की तलहटी में जा कर सब ने वासस्थान बनाया । अन्यान्य देश-प्रदेशों से भी अगणित मनुष्य इसी तरह वहां पर पहुंचे । लाखों मनुष्यों के कारण शत्रुजय की विस्तृत अधोभूमि भी संकुचित होती हुई मालूम देने लगी। परन्तु ज्यों ज्यों जनसमूह की वृद्धि होती जाती थी त्यों त्यों कर्मा साह का उदार हृदय विस्तृत होता जाता था । आये हुए उन सब संघजनों को खान, पान, मकान, वस्त्र, सन्मान और दान दे दे कर शक्तिमान् कर्मा साह ने अपनी उत्तम संघभक्ति पकट की । दरिद्र से ले कर महान् श्रीमन्त तक के सभी For Private and Personal Use Only

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