________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ऐतिहासिक सार-भाग ।
के विशेष तप तपने लगे। रत्नसागर और जयमण्डन नाम के दो यतियों ने छमासीतप किया । व्यन्तर आदि नीच देवों के उपद्रवों के शमनार्थ पाठकवर्य ने सिद्धचक्र का स्मरण करना शुरू किया । इस प्रकार वे सब धर्म के सार्थवाह तप, जप, क्रिया, ध्यान, और अध्ययन रूपी अपने धर्म व्यापार में बहुत कुछ लाभ प्राप्त करते हुए रहने लगे।
सूत्रधारों के मन को आवर्जित करने की इच्छा से कर्मासाह निरंतर उन को खाने के लिये अच्छे अच्छे भोजन और पीने के लिये गर्म दूध वगैरह चीजें दिये करता था । पर्वत पर चढने के लिये डोलियों का भी यथेष्ट प्रबन्ध कर दिया गया था । अधिक क्या !सेंकडों ही वे सूत्रधार जिस समय, जिस चीज की इच्छा करते थे उसे, उसी समय कर्मा साह द्वारा अपने सामने रक्खी हुई पाते थे । इस तरह साह की सुव्यवस्था और उदारता से आवर्जित हो कर सूत्रधार भी दत्तचित्त हो कर अपना काम करते थे और जो कार्य महिने भर में किये जाने योग्य था उसे वे दश ही दिन में पूरा कर देते थे। उन कारीगरों ने सब प्रतिमायें बहुत चतुरता के साथ तैयार की और सब अवयव वास्तुशास्त्र के उल्लेख मुजिब यथास्थान सुन्दराकार बनाये * । अपराजित शास्त्र में लिखे हुए लक्षण मुताबिक, + आय-भाग के ज्ञाता ऐसे उन कुशल कारीगरों ने थोडे ही काल में अद्भुत और उन्नत मन्दिर तैयार किया । इस प्रकार जब सब प्रतिमायें लगभग तैयार हो गई और मन्दिर भी पूर्ण बन चुका तब शास्त्रज्ञाता विद्वानों ने प्रतिष्ठा के मुहूर्त का निर्णय करना शुरू किया।
* यह शिल्पशास्त्र का प्रामाणिक और अत्युत्तम ग्रंथ है । यह अब संपूर्ण नहीं मिलता । पाटन के प्राचीन-भाण्डागार में इस का कितनाक भाग विद्यमान है। ____ + मन्दिरों और भुवनों के उच्च-नीच भागों का वास्तुशास्त्र में जुदा जुदा आय के नाम से व्यवहार किया जाता है।
For Private and Personal Use Only