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शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का
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इस के लिये कर्मा साह ने दूर दूर से, आमन्त्रण कर कर, ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता ऐसे अनेक मुनि, अनेक वाचनाचार्य, अनेक पण्डित, अनेक पाठक, अनेक आचार्य, अनेक गणि, अनेक देवाराधक और निमित्त शास्त्र के पारंगत ऐसे अनेक ज्योतिषी बुलाये । उन सब ने एकत्र हो कर अपनी कुशाग्रबुद्धि द्वारा, सूक्ष्म विवेचना पूर्वक प्रतिष्ठा के शुभ और मंगलमय दिन का निर्णय किया । फिर कर्मा साह को वह दिन बताया गया और सभी ने शुभाशीर्वाद दे कर कहा कि " हे तीर्थोद्धारक महापुरुष ! संवत् १५८७ x के वैशाख वदि ( गुजरात की गणना से चैत्र वदि) ६, रविवार और श्रवण नक्षत्र के दिन जिनराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा का सर्वोत्तम मुहूर्त है, जो तुमारे उदय के लिये हो।" कर्मा साह ने, उन के इस वाक्य को हर्ष पूर्वक अपने मस्तक पर चढाया
और यथा योग्य उन सब का पूजन-सत्कार किया। ___मुहूर्त का निर्णय हो जाने पर कुंकुमपत्रिकायें लिख लिख कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-चारों दिशाओं के जैन संघों को इस प्रतिष्ठा पर आने के लिये आमंत्रण दिये गये । आचार्य श्रीविद्यामण्डनसूरि को आमंत्रण करने के लिये साह ने अपने बड़े भाई रत्नासाह को भेजा । कुंकुमपत्रिकायें पहुंचते ही चारों तरफ से, बडी बडी दूरसे संघ आने लगे । अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, काश्मीर, जालन्धर, मालव........लाट, सौराष्ट्र , गुजरात, मगध, मारवाड और मेवाड आदि कोई भी देश ऐसा न रहा कि जहां पर कर्मा साह ने आमंत्रण न भेजा हो अथवा विना आमंत्रण के भी जहां के मनुष्य उस समय न आने लगे हों । कहीं से हाथी पर, कहीं से घोडे पर, कहीं से रथ पर, कहीं से बेल पर, कहीं से पालखी पर और कहीं से ऊँट पर सवार हो कर मनुष्यों के झुंड के झुंड शत्रुजय पर आने लगे।
+ प्रतिष्ठामुहूर्त की लग्नकुंडली राजावलीकोष्टक के अन्तमें दी हुई है।
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