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शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का
इनमें से दो खण्ड मंत्री ने मन्दिर के भूगृह में रखवा दिये कि जिस से भविष्य में कभी कोई ऊपर्युक्त दुर्घटना हो जॉय तो इन खण्डों से नई प्रतिमा बनवा कर पुनः शीघ्र स्थापित कर दी जॉय ।
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संवत् १२९८ में वस्तुपाल महामात्य का स्वर्गवास हो गया । सत्पुरुषों की जो शंका होती है वह प्रायः मिथ्या नहीं होती । विधि की वक्रता के प्रभाव से, मंत्रीश्वर के मृत्यु- अनन्तर थोडे ही वर्षों बाद मुसल - मानों ने भगवान् आदिनाथ की उस भव्य मूर्ति का कण्ठछेद कर दिया ।
संवत् १३७१ में साधु समरासाह + ने फिर नई प्रतिमा बनवा कर उस जगह स्थापित की और वृद्ध तपागच्छ के श्रीरत्नाकरसूरि, जिन से इस गच्छ का दूसरा नाम रत्नाकरगच्छ प्रसिद्ध हुआ, ने उस की प्रतिष्ठा की । इस बात का जिक्र अन्य प्रशस्ति में भी किया हुआ है । यथा
वर्षे विक्रमतः कुसप्तदहनैकस्मिन् (१३७१) युगादिप्रभुं श्रीशत्रुंजयमूलनायकमतिप्रौढप्रतिष्ठोत्सवम् । साधुः श्रीसमराभिधस्त्रिभुवनीमान्यो वदान्यः क्षितौ श्रीरत्नाकरसूरिभिर्गणधरैर्यैः स्थापयामासिवान् ॥
* टिप्पणी में, इस दुर्घटना का संयत् १३६८ लिखा है । * समरासाह का विस्तत वृत्तान्त के लिये मेरी 'ऐतिहासिक-प्रबन्धो नामक गुजराती पुस्तक देखो ।
+ यह प्रशस्तिपद्य, स्तम्भतीर्थ ( खंभात ) के कोटीध्वज साधु श्रीशाणराज के संवत् १४४९ में बनाये हुए गिरनार तीर्थ पर के श्रीविमलनाथप्रासाद की प्रशस्ति का है । यह प्रशस्ति आज उपलब्ध नहीं है । कोई ३५० वर्ष पहले बनी हुई
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बृहत् शालिक पावल' में इस प्रशस्ति का उल्लेख है तथा इस के बहुत से पद्य भी उल्लिखित हैं। उन्हीं पद्यसमूहों में यह ऊपर का पद्य भी सम्मिलित है 1 इस का पद्यांक ७२ वां है ।
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