Book Title: Shatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 63
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का लिये अपने शाहीखातिर - तवज्जा के में कर्मा साह किया । संभाषण हो चुकने पर बादशाह ने साह को ठहरने के महल का एक सुन्दर भाग खोल दिया । उस की लिये सब प्रकार का उत्तम बन्दोबस्त किया गया । बाद देव गुरु के दर्शन के लिये अच्छे ठाठ-पाट से जिन मन्दिर और जैन उपाश्रय में गया । विधिपूर्वक देव और गुरु का दर्शन-वन्दन नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण और मिष्टान्न याचकों को दान श्रीसोमधीर गणि नाम के विद्वान् यति वहां पर विराजमान थे जिन के पास कर्मा साह सदैव धर्मोपदेश सुनने और आवश्यकादि धर्मकृत्य करने के लिये जाया करने लगा । दिये । इस प्रकार निरन्तर पूजा, प्रभावना और साधर्मि वात्सल्यादि करता हुआ साह सावधान हो कर बादशाह के पास रहने लगा । कुछ दिन बाद श्री विद्यामण्डन सूरि और विनयमण्डन पाठक को कर्मा साह ने अपने आगमनसूचक तथा बादशाह की मुलाकात वगैरह के वृतान्त वाले पत्र लिखे | बादशाह ने साह के पास से पहले चित्तोड में जो कुछ द्रव्य लिया था वह सब उसने पीछा दिया । एक दिन बादशाह खुश हो कर बोला कि " हे मित्रवर ! मैं तुमारा क्या इष्ट कर सकूं ? मेरा दिल खुश करने के लिये मेरे राज्य में से कोई देश इत्यादि का स्वीकार करो । साह ने कहा " आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है। मुझे कुछ भी वस्तु नहीं चाहिए । मैं केवल एक बात चाहता हूं, कि शत्रुंजय पर्वत पर मेरी कुलदेवी की स्थापना हों । उस के लिये मैंने कई कठिन अभिग्रह कर रक्खें हैं । यह बात मैंने पहले भी आप से चित्रकूट में, आप के विदेश जाते समय कही थी और जिस के करने का आपने वचन भी प्रदान किया था । उस वचन के पूर्ण करने का अब समय आ गया है इस "1 For Private and Personal Use Only

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