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उपोद्घात
से ज्ञात होता है की विवेकधीर गणि शास्त्रीय विद्याओं के तो पण्डित थे ही परन्तु शिल्पविद्या में भी पूर्ण निपुण थे। शत्रुजय के उद्धारकार्य में कमा साह ने जिन हजारों शिल्पियों (कारीगरों) को नियुक्त किया था उन सब को निर्माणकार्य में समुचित शिक्षा देने वाले के स्थान पर, विवेकधीर गणि ही को, इन के गुरु (आचार्य) ने अध्यक्ष (इञ्जिनियर) नियत किया था ! इन के बडे गुरुभ्राता विवेकमण्डन पाठक भी इस कार्य में सहकारी थे। पूर्वकाल में जैन विद्वान् कैसे विद्यावान् और सर्वकलाकुशल होते थे इस का खयाल इस कथन से अच्छी तरह हो सकता है । जैनयतियों के लिये सावद्यकर्म के करने-कराने का यद्यपि जैनशास्त्र निषेध करते हैं तथापि संघ की शुभेच्छा और शान्ति के लिये कभी कभी उन्हें वैसे निषिद्ध कर्तव्यों के करने की भी शास्त्रकारों ने आपवादिकी आज्ञा दी है । वास्तुशास्त्र के कथनानुसार, यदि किसी देवमन्दिर की रचना दोष युक्त हो जाय तो उस का अनिष्ट फल बनाने वाले को, उस के पूजकों को, ग्रामवासियों को अथवा उस से भी अधिक सम्पूर्ण देशवासियों को भुगतना पडता है। इस आर्य शास्त्रानुज्ञा के कारण, संघ
और राष्ट्र की भलाई के निमित्त, पं. विवेकधीर गणि को, शिल्पशास्त्र में उन की अप्रतिम निपुणता देख कर, उन के धर्माचार्य ने, जैनधर्म के इस महान् तीर्थ के उद्धारकार्य में, निरीक्षक तया नियुक्त किये थे।
आचार्यवर्य की इस योग्य नियुक्ति का और विवेकधीर गणि की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति का सुफल जैनप्रजा आज तक यथायोग्य भोग रही है ।
- वर्तमान में भी पाटन के तपागच्छ के वृद्ध यति श्रीहिमतविजयजी शिल्पशास्त्र के अद्वितीय ज्ञाता हैं। सारे राजपूताना में और गुजरात तथा काठियावाड में उन के जैसा कोई शिल्पज्ञ नहीं है। डॉ. हर्मन जेकोबी इन की इस विषय की निपुणता देख कर बडे प्रसन्न हुए थे। खेद होता है कि इन के बाद इस विषय के उत्तम ज्ञाता का एक प्रकार से अभाव ही हो जायगा ।
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