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शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का
गये वर्तमान महान् उद्धार का मधुर वर्णन करने की प्रतिज्ञा कर श्रोताओं को सावधान मन से सुनने की विज्ञप्ति की गई है।
सातवें पद्य से प्रबन्ध का प्रारंभ होता है । प्रारंभ, जिन के उपदेश से कर्मा साह ने यह उद्धारकार्य किया है उन आचार्यवर्य के वृत्तान्त से किया गया है । आलंकारिक वर्णन को छोड कर (जो कि बहुत ही अल्प है ) ऐतिहासिक सार-भाग का सरल भावार्थ यहां पर दिया जाता है।
महान् तपागच्छ के रत्नाकरपक्ष की भृगुकच्छीय शाखामें पहले अनेक आचार्य हो गये हैं। उन में विजयरत्नमरि नामके एक प्रतिष्ठित आचार्य हुए जिन्हों ने अपनी प्रखर विद्वत्ता से विद्वानों में सर्वत्र विजयपताका प्राप्त की थी। उन के धर्मरत्नमूरि नाम के शिष्य हुए जो बडे क्रियावान् , विद्यावान् और प्रतापी थे। सुविहितजन निरंतर उन की सेवा किया करते थे। उन का निर्मल यश सर्वत्र फैला हुआ था । बचपन ही में उन्हें लक्ष्मीमंत्र सिद्ध हो गया था । कई राजे महाराजे उन के पगों में अपना मस्तक नमाते थे । अनेक अच्छे कवि उन की स्तवना करते थे। उन सूरिवर्य के अनेक अच्छे अच्छे शिष्य थे जिन में विद्यामण्डन और विनयमण्डन ये दो प्रधान थे। इन में पहले को सूरिजी ने आचार्यपद दिया था और दूसरे को उपाध्यायपद ।
एक समय धर्मरत्नमरि अपने शिष्यों के साथ संघपति xधनराज
____x 'गुरुगुणरत्नाकरकाव्य ' के तीसरे सर्ग में ( श्लोक २० से २५ तक ) दाक्षिणात्य सं. धनराज और नगराज नामक दो भाईयों का जिक्र है । वे दक्षिण में देवगिरि (दौलताबाद ) के रहने वाले थे। उन्होंने सिद्धाचलादि तीर्थों की यात्रा के लिये बडे बडे संघ निकाले थे और लाखों रुपये खर्च किये थे। संभव है कि यह धनराज वही हों-समय एक ही है।
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