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मुख्य मन्दिर का इतिहास ।
कर्मा साह का उद्धृत किया हुआ मन्दिर और प्रतिष्ठित की गई मूर्ति अद्यावधि जैनप्रजा के आत्मिक कल्याण में सहायभूत हो रही है । प्रतिदिन सैंकड़ों-हजारों भाविक लोग, इस महान मन्दिर में विराजित भगवान् की भव्य, प्रशान्त और निर्विकार प्रतिकृति के दर्शन, वन्दन और पूजन कर आत्महित किया करते हैं। कृतज्ञ जैनप्रजा अपने इस तीर्थोद्धारक प्रभावक पुरुष का पुण्यजनक नामस्मरण भी ऊसी प्रेम से करती है जिस तरह भरतादिक अन्यान्य महापुरुषों का करती है ।
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इस उद्धारक पुरुष का यश अक्षररूप से जगत् में शक्य जितने समय तक विद्यमान रखने के लिये तथा भावी जैनप्रजा को अपने पूर्व पुरुषों के कल्याणकर कार्यों का अवलोकन और अनुमोदन कराने के लिये, पण्डित श्री विवेकधीर गणि ने अपनी सद्बुद्धि का सदुपयोग कर यह शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध बनाया है । इस प्रबन्ध में लेखक ने, कर्मा साह का और उन के उद्धार का सब हाल स्पष्ट रूप से लिखा है । प्रबन्धकार, उद्धार के समय विद्यमान ही न थे परंतु उद्धार सम्बन्धी सब उचित व्यवस्था ही उन के हाथ में थी । इस लिये ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रबन्ध बडे ही महत्त्वका है। पं. विवेकधीर गणि कौन और किंस गच्छ के यति थे; इस विषय का का सविस्तर जिक्र इस प्रबन्ध ही में किया हुआ है इस लिये यहां पर ऊहापोह करने की अपेक्षा नहीं रहती । हां, इस प्रबन्ध के सिवा इन्हों ने और भी कोई ग्रंथरचना वगैरह की है या नहीं ? इस के उल्लेख करने की आवश्यकता अवश्य रहती है | परंतु, मुझे अपनी शोध-- खोल में, अभी तक इस विषय में, इस से अधिक और कुछ भी नहीं मालूम हुआ ।
इस प्रबन्ध के दूसरे उल्लास के ८४ वें श्लोक का अवलोकन करने