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मुख्य मन्दिर का इतिहास ।
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की खानें थी जिन में बहुत ऊँची जाति का पत्थर निकलता था । समरा साह ने वहां से पत्थर लेने की इजाजत मांगी। बादशाह ने खुशी पूर्वक लेने दिया । कोई दो वर्ष में मूर्ति बन कर तैयार हुई। मन्दिर की भी सब मरम्मत करवाई । संवत् १३७१ में, समरा साह ने पट्टन से संघ निकाला और गिरिवर पर जाकर भगवन्मूर्ति की फिर से मन्दिर में नई प्रतिष्ठा की । प्रतिष्ठा में तपागच्छ की बृहत्पोशालिक शाखा के आचार्य श्रीरत्नाकरमूरि आदि कई प्रभावक आचार्य विद्यमान थे । इस प्रतिष्ठा के समय के कुछ लेख शत्रुजय पर अब भी विद्यमान हैं । स्वयं समरा साह और उस की स्त्री समरश्री का मूर्तियुग्म भी मौजूद है ।
__ कर्मा साह का उद्धार। समरासाह की स्थापित की हुई मूर्ति का मुसलमानों ने पीछे से फिर शिर तोड दिया । तदनन्तर बहुत दिनों तक वह मूर्ति वैसे हीखण्डित रूप में ही-पूजित रही । कारण यह कि मुसलमानों ने नई मूर्ति स्थापन न करने दी । महमूद बेगड़े के बाद गुजरात और काठियावाड में मुसलमानों ने प्रजा को बडा कष्ट पहुंचाया था । मन्दिर बनवाने और मूर्ति स्थापित करने की बात तो दूर रही, तीर्थस्थलों पर यात्रियों को दर्शन
* महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल ने भी, तत्कालीन बादशाह मोजुद्दीन की रजा ले कर मम्माण से पत्थर मंगवाया था और उस की मूर्तियें बनवा कर इस पर्वत पर तथा अन्यान्य स्थलों पर स्थापित की थी।
+ वैक्रमे वत्सरे चन्द्रहयानीन्दुमिते सति । धीमूलनायकोद्धारं साधुः श्रीसमरो व्यधात् ॥
विविधतीर्थकल्प। # देखो, मेरा प्राचीनजैनलेखसंग्रह.
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