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शजय पर्वत का आधुनिक वृत्तान्त ।
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ने इस की अंजनशलाका करवाई है । इस की वर्ष भर में एक ही बार, बैशाख सुदि ६ के दिन, पूजा की जाती है जो शत्रुजय के अन्तिम उद्धार का ( जिस का ही मुख्य वर्णन इस पुस्तक में किया गया है ) वार्षिक दिन गिना जाता है। बहुत से अज्ञान लोग इसे भीम की मूर्ति समझ कर पूजा करते हैं। यहां पर खडे रह कर पर्वत के शिखर पर नजर डालने से, सब ही मन्दिर मानो पवन से फरकते हुए अपने ध्वजरूप हाथों द्वारा आकाश में संचरण करने वाले अदृश्य देवों को तथा ज्योतिषों को, अपने गर्भ में विराजमान् अर्हद्बिम्बों को पूजने के लिये आह्वान कर रहे हैं, ऐसा आभास होता है।
८ मोतीसाह सेठ की टोंक । ___७५ वर्ष पहले बंबई में मोतीसाह नाम के सेठ बड़े भारी व्यापारी और धनवान् श्रावक हो गये हैं। इन्हों ने चीन, जापान आदि दूर दूरके देशों के साथ व्यापार चलाकर अखूट धन प्राप्त किया था । ये एक दफे शत्रुजय की यात्रा कर ने के लिये संघ निकाल कर आये। उस समय अहमदाबाद के प्रख्यात सेठ हठीभाई भी वहां पर आये हुए थे। शत्रुजय के दोनों शिखरों के मध्य में एक बड़ी भारी और गहरी खाई थी । इसे 'कुन्तासर की खाड ' कहा करते थे । मोतीसाह सेठ ने अपने मित्र सेठ हठीभाई से कहा कि 'गिरिराज के दोनों शिखर तो मन्दिरों से भूषित हो रहे हैं परंतु यह मध्यकी खाई, दर्शकों की दृष्टि में अपनी भयंकरता के कारण, आंख में कंकर की तरह खटके करती है। मेरा विचार है कि इसे पूर कर, ऊपर एक टोंक बनवा दूं।" यह सुन कर हठीभाई सेठ ने कहा " पूर्वकाल में जो बडे बडे राजा और महामात्य हो गये हैं वे भी इस की पूर्ति न कर सके तो फिर तुम इस पर टोंक कैसे बना सकते हों ? " मोतीसाह सेठ ने हँस कर जबाब दिया कि
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