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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
ब्रह्मसूरि शास्त्री के पश्चात् गजपति शास्त्री ने प्रतिलेखन का कार्य चालू रक्खा और लगभग सोलह वर्ष में धवल और जयधवल की प्रतिलिपि नागरी लिपि में पूरी । इसी अवसर में मूडविद्री के पण्डित देवराज सेठी, शांतप्पा उपाध्याय तथा ब्रह्मय्य इंद्र द्वारा उक्त ग्रंथों की कनाडी लिपि में भी प्रतिलिपि कर ली गई । उस समय सेठ हीराचंदजी पुन: मूडविद्री पहुंचे और उन्होंने यह इच्छा प्रगट की कि तीसरे ग्रंथराज महाधवल की भी प्रतिलिपि हो जाय और इन ग्रंथों की सुरक्षा तथा पठन-पाठन रूप सदुपयोग के लिये अनेक प्रतियां कराकर भिन्न-भिन्न स्थानों में रक्खी जावें । किंतु इस बात पर भट्टारक जी व पंच लोग राजी नहीं हुए। तथापि महाधवल की कनाडी प्रतिलिपि पंडित नेमिराजजी द्वारा किये जाने की व्यवस्था करा दी गई । यह कार्य सन् १९१८ से पूर्व पूर्ण हो गया । इसके पश्चात् सेठ हीराचंदजी के प्रयत्न से महाधवल की नागरी प्रतिलिपि पं. लोकनाथजी शास्त्री द्वारा लगभग चार वर्ष में पूरी हुई । इस प्रकार इन ग्रंथों का प्रतिलिपि कार्य सन् १८९६ से १९२२ तक अर्थात् २६ वर्ष चला, और इतने समय में इनकी कनाडी लिपि पं. देवराज सेठी, पं. शांतप्या इन्द्र, पं. ब्रह्मय्य इन्द्र तथा पं. नेमिराज सेठी द्वारा तथा नागरी लिपि पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री, पं. गजपति उपाध्याय और पं. लोकनाथ जी शास्त्री द्वारा की गई। इस कार्य में लगभग बीस हजार रुपया खर्च हुआ। धवल और जयधवल की प्रति के बाहर निकलने का इतिहास
धवल और जयधवल की नागरी प्रतिलिपि करते समय श्री गजपति उपाध्याय ने गुप्त रीति से उनकी एक कनाडी प्रतिलिपि भी कर ली और उसे अपने ही पास रख लिया । इस कार्य में विशेष हाथ उनकी विदुषी पत्नी लक्ष्मीबाई का था, जिनकी यह प्रबल इच्छा थी कि इन ग्रंथों का पठन-पाठन का प्रचार हो । सन् १९१५ में उन प्रतिलिपियों को लेकर गजपति उपाध्याय सेठ हीराचंदजी के पास सोलापुर पहुंचे और न्योछावर देकर उन्हें अपने पास रखने के लिये कहा । किंतु सेठजी ने उन्हें अपने पास रखना स्वीकार नहीं किया तथा अपने घनिष्ठ मित्र सेठ माणिकचंदजी को भी लिख दिया कि वे उन प्रतियों को अपने पास न रक्खें । उनके ऐसा करने का कारण यही जाना जाता है कि वे मूडविद्री से बाहर प्रतियों को न ले जाने के लिये मूडविद्री के पंचों और भट्टारकजी से वचनबद्ध हो चुके थे । अतएव प्रतियों के प्रचार की भावना रखते हुए भी उन्होंने प्रतियों को अपने पास रखना नैतिक दृष्टि से उचित नहीं समझा । तब गजपति उपाध्याय उन प्रतियों को लेकर सहारनपुर पहुंचे और