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श्रावकाचार-संग्रह
न च स्वात्मेच्छया किश्चिदात्तमादेयमेव तत् । नात्तं यत्तदनादेयं भ्रान्तोन्मत्तकवाक्यवत् ॥ १०५ तस्माद्यत्प्रासुकं शुद्धं तुच्छहसाकरं शुभम् । सर्वं त्यक्तुमशक्येन ग्राह्यं तत्क्वचिदपशः ॥१०६ यावत्साधारणं त्याज्यं त्याज्गं यावत्त्रसाश्रितम् । एतत्त्यागे गुणोऽवश्यं संग्रहे स्वल्पदोषता ॥ १०७ ननु साधारणं यावत्तत्सर्वं लक्ष्यते कथम् । सत्यं जिनागमे प्रोक्ताल्लक्षणादेव लक्ष्यते ॥ १०८ तल्लक्षणं यथा भङ्गे समभागः प्रजायते । तावत्साधारणं ज्ञेषं शेयं प्रत्येकमेव तत् ॥१०९ तत्राप्यत्यल्पीकरणं योग्यं योगेषु वस्तुषु । यतस्तृष्णानिवृत्त्यर्थमेतत्सर्वं प्रकीर्तितम् ॥ ११०
साधारण या सजीवोंसे भरे हुए हैं अथवा अयोग्य हैं ऐसे पदार्थों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए – ऐसे पदार्थोंका दूर ही से त्याग कर देना चाहिये || १०४ || जो कुछ अपनी इच्छानुसार ग्रहण कर लिया है वही आदेय या ग्रहण करने योग्य है तथा जो कुछ अपनी इच्छानुसार छोड़ दिया है वही अनादेय या त्याग करने योग्य है ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जिस प्रकार किसी पागल या उन्मत्त पुरुषके वाक्य उसकी इच्छानुसार कहे जाते हैं, पदार्थोंकी सत्ता या असत्ताके अनुसार नहीं कहे जाते और इसीलिये वे मिथ्या या ग्रहण करने अयोग्य समझे जाते हैं उसी प्रकार इच्छानुसार ग्रहण करना या छोड़ना भी मिथ्या या विवेकरहित समझा जाता है। इसलिये किसी भी पदार्थका त्याग या ग्रहण अपनी इच्छानुसार नहीं होना चाहिये किन्तु विवेकपूर्ण यथार्थ शास्त्रोंके अनुसार होना चाहिये || १०५ || अतएव जो पुरुष पूर्णरूपसे पाँचों पापोंका त्याग नहीं कर सकते, महाव्रत धारण नहीं कर सकते उनको जो पदार्थ प्रासुक हैं, जीव रहित हैं, शुद्ध हैं, शुभ हैं और जो थोड़ी बहुत हिंसासे या थोड़ेसे ही सावद्य कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले हैं ऐसे पदार्थ भी थोड़े बहुत ग्रहण करने चाहिये और वे भी कभी-कभी ग्रहण करना चाहिये सदा उन्हीं में लीन नहीं रहना चाहिये ॥ १०६॥ जो सधारण हैं उनका सबका त्याग कर देना चाहिये और जिनमें सजीव रहते हैं उनका सबका त्याग कर देना चाहिये । इनके त्याग करनेसे गुण - मूलगुण और उत्तर गुण बढ़ते हैं और इनका ग्रहण करनेसे भक्षण करनेसे महापाप उत्पन्न होते हैं ॥१०७॥
प्रश्न- यदि साधारण वनस्पतियोंका त्याग कर देना चाहिए तो फिर यह भी बतलाना चाहिये कि साधारण वनस्पतियोंकी पहचान क्या है । किस लक्षणसे उनका ज्ञान हो सकता है । उत्तर - आपका यह पूछना ठीक है । जेन शास्त्रोंमें जो कुछ साधारणका लक्षण बतलाया गया है उसी लक्षण से साधारण वनस्पतियोंका ज्ञान हो सकता है || १०८ | | उसका लक्षण शास्त्रोंमें इस प्रकार लिखा है कि जिसके तोड़ने में दोनों भाग एकसे हो जायँ जिस प्रकार चाकूसे दो टुकड़े करने पर दोनों भाग चिकने और एकसे हो जाते हैं उसी प्रकार हाथसे तोड़ने पर भी जिसके दोनों भाग चिकने एकसे हो जायँ वह साधारण वनस्पति है । जब तक उसके टुकड़े इसी प्रकारके होते रहते हैं तब तक उसे साधारण समझना चाहिये तथा जिसके टुकड़े चिकने और एकसे न हों ऐसी बाकीकी समस्त वनस्पतियोंको प्रत्येक समझना चाहिये ||१०९ || इस प्रकार पदार्थों की प्राप्ति होने पर जो योग्य पदार्थ हैं उनको भी बहुत थोड़ी मात्रामें ग्रहण करना चाहिये अर्थात् योग्य पदार्थों में भी अधिक भागका त्याग कर जितने कमसे अपना कार्य सिद्ध हो सकता है उतना ही ग्रहण करना चाहिये । बाकी सबका त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि यह सब त्याग या समस्त व्रत, मूलगुण उत्तरगुण आदि तृष्णाको दूर करनेके लिये ही कहे गये हैं । यदि तृष्णा कम न हुई तो त्याग करना व्यर्थ है । क्योंकि तृष्णा घटानेके लिये ही त्याग किया जाता है | ११० || इस प्रकार अत्यन्त
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