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लाटी संहिता
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भावार्थ – समस्त वृक्षोंपर जो-जो अपना साधारण अवस्थाका समय
पुष्पसाधारणाः केचित्करी र सर्षपादयः । पर्वसाधारणाश्चक्षुदण्डाः साधारणाप्रकाः ॥९५ फलसाधारणं ख्यातं प्रोक्तोदुम्बरपञ्चकम् । शाखासाधारणा ख्याता कुमारी पिण्डकादयः ॥९६ कुम्पलानि च सर्वेषां मृदूनि च यथागमम् । सन्ति साधारणान्येव प्रोक्तकालावधेरधः ॥९७ शाकाः साधारणाः केचित्केचित्प्रत्येक मूर्तयः । वल्ल्यः साधारणाः काश्चित्काश्चित्प्रत्येककाः स्फुटम् ॥ तत्स्वरूपं परिज्ञाय कर्तव्या विरतिस्ततः । उत्सर्गात्सर्वतस्त्यागो यथा शक्त्यापवादतः ॥९९ शक्तितो विरतौ चापि विवेकः साधुरात्मनः । निविवेकात्कृतं कर्म विफलं चाल्पफलं भवेत् ॥१०० कदाचिन्महतोऽज्ञानाददुर्दैवानिविवेकिनाम् । तत्केवलमनर्थाय कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥१०१ यथाsत्र श्रेयसे केचिद्धिसां कुर्वन्ति कर्मणि । अज्ञानात्स्वर्गहेतुत्वं मन्यमानाः प्रमादिनः ॥ १०२ तदवश्यं तत्कामेन भवितव्यं विवेकिनाम् । देशतो वस्तुसंख्यायाः शक्तितो व्रतधारिणा ॥ १०३ विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि । आदेयं प्रासुकं योग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् ॥ १०४ ॥९४॥ फूलों में करीरके फूल और सरसोंके फूल तथा और भी ऐसे ही फूल साधारण होते हैं तथा पर्वों में ईखकी गाँठें साधारण होती हैं तथा उसका आगेका भाग भी साधारण होता है ॥९५॥ फलोंमें साधारण फल पाँचों उदुम्बर फल होते हैं तथा शाखाओंमें साधारण कुमारी पिंड ( गवारपाठा) है । अर्थात् गँवारपाठा शाखारूप ही होता है और उसकी सब शाखायें साधारण हैं ||१६|| वृक्षोंपर पहले ही पहले जो नये पत्ते निकलते हैं वे बड़े कोमल होते हैं जिनको कोंपर कहते हैं वे सब अपने नियत समय के भीतर साधारण रहते हैं नये पत्ते निकलते हैं वे सब कुछ समय तक साधारण रहते हैं। बीत जाने फिर वे ही पत्ते बड़े होनेपर प्रत्येक हो जाते हैं ||१७|| शाकों में ( चना, मेथी, बथुआ, पालक, कुलफी आदि शाकोंमें) कोई शाक साधारण होते हैं और कोई प्रत्येक होते हैं । इसी प्रकार लता या बेलोंमें कोई लताएँ साधारण होती हैं और कोई लतायें प्रत्येक होती हैं ॥९८॥ इन सब साधारणोंका स्वरूप जानकर इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये क्योंकि मन-वचन-काय या कृत कारित अनुमोदनासे समस्त पापोंका त्याग कर देना उत्सर्ग मार्ग है और अपनी शक्तिसे त्याग कर देना अपवाद मार्ग है || ९९ | | शक्तिके अनुसार त्याग करनेमें भी अपना विवेक या विचार ही कल्याण करनेवाला होता है । (यह कार्य मेरे आत्माके लिये कल्याण करनेवाला है और यह नहीं है । इस प्रकारके विचारोंको विवेक कहते हैं ) श्रावकोंके द्वारा जो कुछ पापोंका त्याग किया जाय वह विवेक या विचारपूर्वक ही त्याग होना चाहिये। क्योंकि जो कार्य विना विवेकके या विना विचारके किया जाता है वह या तो निष्फल जाता है या उसका फल बहुत ही थोड़ा मिलता है ॥१००॥ कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो विवेकरहित पुरुष अपने अज्ञानसे अथवा अपने अशुभ कर्मके उदयसे जो कुछ शुभ अथवा अशुभ कार्य करते हैं उनसे अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं ||१०१ जैसे इस संसार में कितने ही प्रमादी पुरुष ऐसे हैं जो अपना भला करनेके लिये या अपना कल्याण करनेके लिये देवताओंकी पूजा करनेमें या यज्ञ करनेमें या अन्य ऐसे ही कामोंमें अनेक जीवोंकी हिंसा करते हैं और अपने अज्ञानसे या मिथ्याज्ञानसे उसे स्वर्गका कारण मानते हैं ॥ १०२ ॥ | इसलिये जो जीव अपनी शक्तिके अनुसार व्रत धारण करना चाहते हैं और पदार्थोंकी संख्याका एक देश रूपसे त्याग कर देना चाहते हैं उन्हें विवेकी अवश्य होना चाहिये ॥ १०३ ॥ एक देशत्याग करने में भी विवेक या विचारकी बड़ी भारी आवश्यकता है क्योंकि जो निर्जीव और योग्य पदार्थ हैं उन्हीं को ग्रहण करना चाहिए तथा जो सचित्त या जीवराशिसे भरे हुए हैं,
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