________________
26...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में द्वारा कृतिकर्म आदि किए जाते हैं। मूलत: यह अध्यात्मिक क्रिया सूत्रपाठ के अभ्यास पर आधारित है और इन्हें गुरु मुख से एवं उपधान तप पूर्वक कण्ठाग्र करने का विधान है। सूत्र पाठ के अभाव में गुरुवन्दन, प्रत्याख्यान,प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ कैसे की जा सकती है? अत: ये सूत्र पाठ जिसमें संकलित हैं उसका नाम आवश्यक सूत्र है।
वर्तमान उपलब्ध आवश्यक सूत्र की रचना कब हुई? यदि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो कोई पर्याप्त सामग्री प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि पंडित सुखलालजी ने इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके निर्देशानुसार आवश्यक सूत्र ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचित होना चाहिए। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि ईस्वी सन् से पूर्व पाँच सौ छब्बीसवें वर्ष में भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ। वीर-निर्वाण के 20 वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी का निर्वाण हुआ। सुधर्मा स्वामी गणधर थे। आवश्यक सूत्र न तो तीर्थंकर की कृति है और न ही गणधर की। तीर्थंकर की कृति इसलिए नहीं कि वे अर्थ का उपदेश मात्र करते हैं, सूत्र नहीं रचते। गणधर सूत्र रचते हैं, परन्तु आवश्यक सूत्र गणधर रचित न होने का एक कारण यह है कि इस सूत्र की गणना अंगबाह्य श्रुत में हैं अत: यह सुधर्मा स्वामी के पश्चात किसी बहुश्रुत आचार्य द्वारा रचित कहा जाना चाहिए।78 आचार्य उमास्वाति ने अंगबाह्य श्रुत का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जो श्रुत गणधर रचित न होकर उनसे परवर्ती किसी मेधावी आचार्य द्वारा निर्मित हो, वह अंगबाह्यश्रुत कहलाता है। उन्होंने सोदाहरण विवरण प्रस्तुत करते हुए सबसे पहले सामायिक आदि छह आवश्यक नामों का उल्लेख किया है और इसके पश्चात दशवैकालिक आदि अन्य सूत्रों का।80
यहाँ ध्यातव्य है कि वीर प्रभु के प्रथम पट्ट पर सुधर्मा स्वामी और उसके तृतीय पट्ट पर आचार्य शय्यंभव विराजे। दशवैकालिक सूत्र आचार्य शय्यंभव की कृति है। इस प्रकार आवश्यक सूत्र अंगबाह्य होने के कारण गणधर सुधर्मा के पश्चाद्वर्ती किसी प्रज्ञावान आचार्य की रचना स्वीकार करनी चाहिए। इस तरह इसके रचनाकाल की पूर्व अवधि अधिकतम ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शती के प्रारम्भ तक मानी जा सकती है तथा उत्तर अवधि ईस्वी सन से पूर्व चौथी