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290... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
संस्करण किया जाता है। वैसे ही उत्तरगुणों तथा मूलगुणों के खंडन और विराधना का उत्तरकरण किया जाता है। 69 उत्तरकरण - आत्मा को शुद्ध करने के लिए एक प्रकार की क्रिया है । इस अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है- आलोचना और निंदा के द्वारा आत्मा को शुद्ध बनाया जाता है, जबकि उत्तरीकरण रूप आलोचना - निन्दा से आत्मा को विशेष प्रकार से शुद्ध बनाया जाता है।70
2. प्रायश्चित्तकरण- प्रायः + चित्त इन दो शब्दों के मेल से निर्मित है। प्रायः का अर्थ बहुधा और चित्त का अर्थ मन है । मन के मलिन भाव का शोधन करने वाली क्रिया प्रायश्चित्त है अथवा कर्म से मलिन बने हुए चित्त का (जीव का) अधिक भाग में शोधन करता है, वह प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त का संस्कृत रूपान्तर 'पापच्छित' भी होता है, जिसका अर्थ पाप का छेदन करने वाली क्रिया है। प्रायश्चित्त का यह अर्थ समुचित प्रतीत होता है। आवश्यकनिर्युक्ति में प्रायश्चित्त की व्याख्या इस प्रकार की गई है - जिससे पाप का छेदन हो, वह प्रायश्चित्त कहलाता है अथवा प्रायः अधिक भाग में चित्त का विशोधन करता
है वह प्रायश्चित्त कहलाता है। 71
शास्त्रोक्त रूप से प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग काल में तो पूर्वकृत अतिचारों का स्मरण एवं संग्रह करते हैं। तदनन्तर स्मृत अतिचारों का गुरु के समक्ष प्रकाशन करके प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं। इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त की पूर्व भूमिका रूप है ।
3. विशोधीकरण - चित्त का विशेष शोधन करने वाली क्रिया । विशिष्ट प्रकार से शोधन (शुद्धि) करने वाली क्रिया विशोधि या विशुद्धि कहलाती है । चैत्यवंदन महाभाष्य में कहा गया है कि क्षार आदि के द्रव्य संयोग से वस्त्र आदि की विशुद्धि होना द्रव्यविशुद्धि है और निन्दा, गर्हा आदि के द्वारा आत्मा की विशुद्धि होना भावविशुद्धि है। कायोत्सर्ग साधना से भावविशुद्धि होती है। 72 आलोचना और प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्ध बनी हुई आत्मा चित्त की विशेष शुद्धि करने के लिए इस प्रकार चिंतन करें -
हे आत्मन्! भव अटवि से पार होने के लिए तूंने चारित्र ग्रहण किया है, उसकी रक्षा करने वाले पाँच समिति और तीन गुप्ति हैं। यह बात भली-भाँति जानता है, फिर भी उसका निरतिचार पालन क्यों नहीं करता है? गृहीत व्रत में न्यूनाधिक अतिचार कैसे लग जाते हैं ?