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306... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
सम्बन्ध में पश्चात्ताप करके, उस विषय में विशेष यतनापूर्वक वर्तन करने का संकल्प किया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र का गहराई से मनन किया जाए तो हिंसा-अहिंसा का वास्तविक स्वरूप भी समझ में आ जाता है। वह यह है कि किसी जीव को मार देना, प्राणरहित कर देना ही हिंसा नहीं है, प्रत्युत सूक्ष्म या स्थूल जीव को किसी भी सूक्ष्म या स्थूल चेष्टा के माध्यम से या किसी अन्य प्रकार से सूक्ष्म या स्थूल पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा है। सूक्ष्म जीवों को परस्पर में टकराना, उन पर धूल आदि डालना, भूमि पर मसलना, पैर से संस्पर्शित करना, स्वतन्त्र गति में रुकावट डालना, एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर रखना, भयभीत करना, स्पर्श करना भी हिंसा है। जैन धर्म का अहिंसा दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म है।
2. तस्सउत्तरीसूत्र - इसका दूसरा नाम कायोत्सर्गसूत्र है, क्योंकि इस सूत्र के उच्चारण द्वारा प्रायश्चित्त आदि के लिए कायोत्सर्ग करने का संकल्प किया जाता है। स्पष्टीकरण के लिए मूल पाठ यह हैपायच्छित्त- करणेणं,
तस्स
उत्तरीकरणेणं,
विसोहीकरणेणं । विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्धायट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ।। इरियावहिसूत्र से जीव विराधना का प्रतिक्रमण करते हैं, उसके अनुसंधान में यह सूत्र कहा जाता है।
• इरियावहिसूत्र की आठ संपदाएँ हैं। इनमें अन्तिम प्रतिक्रमण संपदा तस्सउत्तरीसूत्र की है।
• इस सूत्र में कायोत्सर्ग के चार हेतु बतलाये गये हैं अतः यह हेतुदर्शक
सूत्र है।
• प्रस्तुत सूत्र चार भागों (विषयों) में विभक्त है। पहला भाग 'तस्स' ऐसे एक पद का है और वह इरियावहिसूत्र द्वारा किए गए प्रतिक्रमण का अनुसंधान दर्शाता है, इसलिए अनुसंधान दर्शक है । प्रतिक्रमण में जहाँ-जहाँ यह सूत्र बोला जाता है, वहाँ मिथ्यादुष्कृत रूप प्रतिक्रमण के बाद ही बोला जाता है। इस कारण शास्त्रकारों ने इसे विशेष - प्रतिक्रमण सूत्र भी कहा है।
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इस सूत्र का दूसरा भाग 'उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त- करणेणं, विसोहीकरणेणं और विसल्लीकरणेणं' - इन चार पदों से सम्बद्ध एवं कायोत्सर्ग के चार हेतु उपदर्शित करने से हेतुदर्शक है। इन चार हेतुओं का