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372...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में इन दोनों के परिपालन से दोषों का परिहार होकर आत्मा शुद्ध दशा की ओर अग्रसर होती है, आत्मशुद्धि के उपक्रम में तीव्रता आती है तथा मोक्षमार्ग प्रशस्त बनता है।
दूसरे, जब तक प्रत्याख्यान किया जायेगा तब तक उनमें लगे दोषों या मर्यादा के अतिक्रमण का प्रतिक्रमण भी किया जायेगा तथा जब तक प्रतिक्रमण किया जायेगा तब तक अन्तिम आवश्यक के रूप में प्रत्याख्यान भी किया जायेगा- इस तरह प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का पारस्परिक सम्बन्ध निर्विवादत: सिद्ध होता है। आहार के प्रकार ___षडावश्यक में प्रत्याख्यान का सम्बन्ध-आहारादि के त्याग से है अत: आहार का स्वरूप ज्ञात करना आवश्यक है।
आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार जाति की दृष्टि से आहार एक है, उसके कोई प्रकार नहीं है किन्तु प्रत्याख्यान की अपेक्षा से आहार अशन, पान, खादिम
और स्वादिम के भेद से चार प्रकार का होता है। चतुर्विध आहार का परिज्ञान इसलिए जरूरी है कि इससे ज्ञान आदि की सिद्धि होती है। आहार के भेदों का ज्ञान होने से द्विविध-आहार आदि प्रत्याख्यान करते समय उसके अनुसार श्रद्धा, पालन आदि होता है।96
सर्वप्रथम आहार के चार भेदों का ज्ञान होता है, फिर तद्विषयक रुचि होती है, फिर द्विविध आहार आदि भेद वाले प्रत्याख्यान को स्वीकार करने का भाव होता है फिर उसका उपयुक्त पालन होता है। तत्पश्चात आहार सम्बन्धी विरति की वृद्धि होती है। यह सब आहार के भेदों का ज्ञान होने पर ही सम्भव है।97 अतएव पंचाशकप्रकरण, प्रवचनसारोद्धार आदि में उल्लिखित आहार के चार प्रकारों का वर्णन निम्न प्रकार है-98
1. अशन- 'अश् भोजने' धातु से कर्म में 'ल्युट्' प्रत्यय लगकर 'अशन' शब्द बना है। अशन का सामान्य अर्थ भोजन है, परन्तु यहाँ क्षुधा का शमन करने वाले पदार्थ को अशन कहा गया है। सामान्य रूप से अशन के अन्तर्गत सर्व जाति के चावल, गेहूँ आदि अनाज, मूंग, चने, जुआर आदि का सेका हुआ आटा, मूंग आदि कठोल धान्य, राब आदि खाद्य विशेष, लड्डू, पेड़े आदि सर्व प्रकार की मिठाईयाँ, घेवर, लापसी, हलवा, खीर, दही, घी, कढ़ी आदि रसदार