Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 440
________________ 382... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में प्रत्याख्यान आवश्यक का प्रयोजन प्रत्याख्यान का उद्देश्य समझते हुए यह प्रश्न उठता है कि यदि सामायिक से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है तो चतुर्विंशतिस्तव की आवश्यकता क्या है ? यदि चतुर्विंशतिस्तव से शिव सुख को उपलब्ध किया जा सकता है तो वन्दन की आवश्यकता क्या है? यदि वन्दन से मोक्षसुख प्राप्त हो सकता है तो प्रतिक्रमण की आवश्यकता क्या है ? प्रतिक्रमण से परमानन्द की प्राप्ति की जा सकती है तो कायोत्सर्ग की आवश्यकता क्या है ? और कायोत्सर्ग से परम पद में स्थिर हो सकते हैं तो प्रत्याख्यान का प्रयोजन क्या है ? प्रबोध टीकाकार इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि छहों आवश्यक क्रियाएँ पारस्परिक फल की दृष्टि से समान हैं, किन्तु प्रयोजन की दृष्टि से भिन्न हैं और उनमें कारण- कार्य का सम्बन्ध भी रहा हुआ है इसलिए प्रत्येक का स्वतन्त्र अस्तित्व है तथा अपने - अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रत्येक की आवश्यकता है। सामायिक का मुख्य प्रयोजन सावद्य योग से विरति अर्थात सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग है। सावद्य क्रियाओं का त्याग किए बिना आत्मशुद्धि की कोई भी क्रिया कर पाना शक्य नहीं है। चतुर्विंशतिस्तव का मुख्य प्रयोजन अरिहंत - वीतरागी पुरुषों की उपासना है और वन्दन का मुख्य प्रयोजन सद्गुरु का विनय है। दूसरे एवं तीसरे आवश्यक रूप दोनों क्रियाएँ देव और गुरु की भक्ति रूप होकर योगसाधना की पूर्व भूमिका का निर्वहन करती हैं। यह पूर्वसेवा है। योगविशारदों का स्पष्ट अभिप्राय है कि किसी भी प्रकार की योग साधना करनी हो तो प्रथम देव और गुरु की भक्तिरूप पूर्व सेवा अवश्य करनी चाहिए । प्रतिक्रमण का मुख्य प्रयोजन आत्म शोधन है। जब तक व्यक्ति स्वकृत भूलों का निरीक्षण, संशोधन एवं उन्हें दूर करने का प्रयत्न नहीं करता है तब तक ध्यान या संयम की यथाविध आराधना नहीं हो सकती। कायोत्सर्ग का मुख्य प्रयोजन ध्यान है और ध्यान द्वारा चित्त का विक्षेप (आत्मिक शान्ति को भग्न करने वाली स्थितियाँ) दूर किये बिना संयम का शुद्ध पालन होना सम्भव नहीं है । प्रत्याख्यान का मुख्य प्रयोजन संयम गुण की धारणा है और वही संकल्प

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