Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 443
________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...385 5. योग प्रत्याख्यान- मन, वाणी एवं शरीर सम्बन्धी प्रवृत्तियों को रोकना योग प्रत्याख्यान है। इससे जीव अयोग दशा अर्थात चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तथा नए कर्मों का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। 123 6. शरीर प्रत्याख्यान - अभ्युद्यत मरण (भक्तपरिज्ञा, इंगित और पादपोपगमन अनशन) स्वीकार करना शरीर प्रत्याख्यान है। इस प्रत्याख्यान से सिद्धावस्था की प्राप्ति और परमसुख की उपलब्धि होती है। 124 7. सहाय प्रत्याख्यान - संयमी जीवन में किसी दूसरे का सहयोग न लेना सहाय प्रत्याख्यान है। इस प्रत्याख्यान से जीव एकत्व भाव को प्राप्त करता है । एकत्वभाव (एकाग्रता) प्राप्त होने से वह शब्द विहीन, कलह विहीन, संयमबहुल और समाधि सम्पन्न हो जाता है। 125 8. भक्त प्रत्याख्यान– त्रिविध या चतुर्विध आहार का त्याग करना भक्त प्रत्याख्यान है। भक्त प्रत्याख्यानी अनेक भवों (जन्म-मरणों) का निरोध कर लेता है। 126 9. सद्भाव प्रत्याख्यान - सभी प्रकार के व्यापार का परिहार कर वीतराग अवस्था को प्राप्त करना सद्भाव प्रत्याख्यान है। यह सर्वान्तिम और पूर्ण प्रत्याख्यान है। इससे पूर्व कहे गए सभी प्रत्याख्यान अपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनमें प्रत्याख्यान करने की अपेक्षा शेष रहती है, जबकि 14वें गुणस्थान की भूमिका पर पहुँचे हुए साधक के लिए किसी प्रत्याख्यान की आवश्यकता नहीं रहती। इस भूमिका में शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण पर आरूढ़ साधक सर्व कर्मों को क्षीणकर सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान से अतीतकृत पापकर्म विनष्ट हो जाते हैं वर्तमानकृत पापों का आश्रव (आगमन) रूक जाता है और अनागत काल के पापकृत्य भी अवरुद्ध हो जाते हैं। 127 भगवतीसूत्र के दूसरे शतक में प्रश्नोत्तर रूप से इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि श्रमण की पर्युपासना का फल श्रवण है, श्रवण का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विज्ञान है और विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का फल संयम है, संयम का फल अनास्रव हैं, अनास्रव का फल तप है, तप का फल कर्म नाश है, कर्मनाश का फल निष्क्रियता है और

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