Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 445
________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...387 शस्त्र भी उतनी ही तीव्र गति से विकसित हो रहे हैं। पर आज भी भारतीय संस्कृति में धर्म और अध्यात्म का प्रभाव होने से अनेकांश समस्याओं का निवारण हमारे समक्ष हैं। प्रत्याख्यान या तप-त्याग यह हमारी पैत्रिक सम्पत्ति है। इसके माध्यम से सर्वप्रथम तो परिग्रह की संग्रह बुद्धि कम होती है और आज जो आर्थिक भेद दृष्टिगत होता है वह कम हो सकता है। बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक तंगी, बढ़ता अपराधिकरण, अपहरण, चोरी आदि कई राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याओं का निवारण हो सकता है। अति परिश्रम एवं दौड़-भाग भरी जिंदगी के बाद भी आज व्यक्ति खुश नहीं है, परिवार में मेल-जोल नहीं है, आपस में स्नेह नहीं है क्योंकि सभी के लिए अपना स्वार्थ मुख्य है। ऐसे विषम समय में प्रत्याख्यान स्वार्थवृत्ति को न्यून करता है। आहार का संकोच या उसका सर्वथा त्याग करने से विषय-वासना नियंत्रित होती है जिससे कई रोगों पर विजय भी प्राप्त होती है । नियम ग्रहण करने पर मनोबल एवं संकल्प बल की शक्ति असीम होने से उस व्यक्ति के लिए प्रत्येक कार्य को पूर्ण करना सुगम हो जाता है। इस प्रकार अनेकानेक समस्याओं का समाधान प्रत्याख्यान के माध्यम से हो सकता है। प्रत्याख्यान, प्रबंधन के क्षेत्र में भी सहयोगी बन सकता है। प्रत्याख्यान का अर्थ है नियमबद्धता। नियमदृढ़ता अनुशासन का विकास करती है। अनुशासन के द्वारा कार्यालय, स्कूल आदि का संचालन सम्यक् प्रकार से हो सकता है। अतः सामूहिक क्षेत्रों के प्रबंधन में प्रत्याख्यान आवश्यक है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार नियंत्रण आवश्यक है और प्रत्याख्यान आहार नियंत्रण का उत्तम उपाय है। इसके द्वारा शरीर प्रबन्धन एवं रोग प्रबन्धन में सहायता प्राप्त होती है। प्रत्याख्यान के द्वारा व्यक्ति की एक मर्यादा निर्धारित हो जाती है जिससे उसके मानसिक एवं शारीरिक श्रम की बचत हो सकती है। इससे तनाव प्रबन्धन हो सकता है। समय की बचत होती है इससे समय का सत्कार्यों में नियोजन किया जा सकता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान के माध्यम से समय, शक्ति, तनाव आदि का सम्यक् नियोजन या प्रबन्धन किया जा सकता है।

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