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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ... 377
5. दान, शील, तप और भावना - इन चतुर्विध धर्म में भी भाव धर्म प्रधान कहा गया है, परन्तु दान आदि नहीं।
6. व्रत, नियम या प्रत्याख्यान स्वीकार करना क्रिया धर्म है और क्रिया ज्ञान की दासी है, इसलिए ज्ञानादि रूप भावना ही उत्तम है किन्तु व्रत - नियम आदि क्रिया उत्तम नहीं है ।
व्रत
7. यदि प्रत्याख्यान ग्रहण करके उसका सम्यक् पालन न कर सकें, तो भंग होने से महादोष प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में भावना मात्र से व्रतनियम का पालन करना अधिक उत्तम है।
8. प्रत्याख्यान लेने के बाद भी मन नियन्त्रित नहीं रहता है। पूर्व संस्कारों के कारण मन आहार-विहार में घूमता ही रहता है, तब प्रत्याख्यान ग्रहण करने का प्रयोजन क्या ?
9. कोई व्यक्ति अवांछनीय अथवा अलभ्य वस्तु का प्रत्याख्यान करें, उसकी हँसी करते हैं कि 'इसमें तुमने क्या त्याग किया है ?' ना मली नारी त्यारे आपे ब्रह्मचारी |
10. लोक समुदाय के समक्ष बद्धाञ्जलि युक्त खड़े होकर प्रत्याख्यान उच्चरित करना, यह तो लोक दिखावा और आडंबर है अतएव जैसे गुप्तदान महाफल वाला है वैसे ही संकल्प पूर्वक पालन किया गया प्रत्याख्यान अत्यन्त फलवाला है- इस तरह के अनेक कुप्रवचन स्वीकार करने योग्य नहीं है। उपर्युक्त दलीले प्रत्याख्यान धर्म की विघातक और धर्म से पतित करने वाली होने से भव्य जीवों के लिए न आदर करने योग्य, न बोलने योग्य और सुनने योग्य भी नहीं है ।
ऊपर वर्णित उत्सूत्र प्रमाणों में कितने ही वचन शास्त्रोक्त भी हैं, परन्तु शास्त्र में ये वचन भव्य जीवों को धर्म सन्मुख करने की अपेक्षा कहे गये हैं। जबकि प्रत्याख्यान धर्म को निम्न कोटि का दिखलाने के उद्देश्य से कहा गया है और निःसन्देह ये वचन उत्सूत्र रूप कहलाते हैं ।
तीस नीaियाता
प्रत्याख्यान अधिकार में तीस नीवियाता का विवेचन करना प्रासंगिक है। शास्त्रीय विधि के अनुसार जैन मुनि अथवा मुमुक्षु साधक को विकृत (विगई ) द्रव्यों का सेवन नहीं करना चाहिए । विगय शब्द का विकृत नाम विकृति के अर्थ