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358... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
उसी प्रकार नवकारसी आदि प्रत्याख्यान के आगार (अपवाद) उसके मूल भाव को प्रभावित नहीं करते हैं। 79
सामायिक (दीक्षा) में पतन की सम्भावना होने पर भी अपवाद क्यों
नहीं?
शंका- कोई प्रश्न करता है कि यद्यपि सामायिक योद्धा के अध्यवसाय के समान है फिर भी कालान्तर में किसी जीव का पतन सम्भव है, इसलिए सामायिक को सापवाद मानना ही उपयुक्त है ?
समाधान— इसका सटीक जवाब यह है कि साधु के द्वारा सामायिक का पालन करते समय और योद्धा के द्वारा युद्ध करते समय किसी कारणवश (साधु के पक्ष में परीषह आदि और योद्धा के पक्ष में शत्रुभय आदि कारणों से) दोनों प्रतिज्ञाओं (मरण और विजय) का अभाव हो जाए, तो भी साधु के सामायिक स्वीकार करते समय और योद्धा के युद्ध में प्रवेश करते समय उसका भाव उक्त प्रतिज्ञाओं से आबद्ध होता है अर्थात मरना या विजय प्राप्त करना, ऐसा ही भाव होता है। उस समय किसी अपवाद स्वीकार का भाव नहीं होता है, इसलिए सामायिक में आगार रखना या उसे सापवादिक मानना युक्त नहीं है 180
इस वर्णन के स्पष्ट बोध हेतु यह समझ लेना भी आवश्यक है कि साधु को सामायिक स्वीकार करते समय और योद्धा को युद्ध में प्रवेश करते समय कर्म क्षयोपशम का ही भाव होता है जिससे भविष्य में किसी तरह के अपवाद की अपेक्षा के बिना मरना या विजय पाना - ऐसा अध्यवसाय हो जाता है। वह यह नहीं सोचता कि उसे अपवाद स्वीकार करने पड़ेंगे।
सारांश है कि प्रत्याख्यान नियम रूप है और सामायिक सर्वसावद्ययोग के त्याग रूप है। प्रत्याख्यान अल्पकालिक या यावत्कालिक उभय कोटि का हो सकता है, किन्तु सर्वविरति रूप सामायिक यावत्कालिक ही होती है। प्रत्याख्यान में अनेक तरह से दोष लगने की शक्यता रहती है परन्तु सर्वविरति सामायिक में अप्रमाद की वृद्धि होने के फलस्वरूप सतत जागरूकता बनी रहती है। इन्हीं भेद विवक्षा के कारण प्रत्याख्यान में आगार रखे गये हैं जबकि सामायिक के लिए किसी अपवाद की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती ।