Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 424
________________ 366... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में नवकारसी आदि तेरह प्रत्याख्यान का, तीसरा पाणस्स का, चौथा देसावगासिक प्रत्याख्यान का, पांचवाँ दिवसचरिम या भवचरिम प्रत्याख्यान का होता है। चौविहार उपवास में 2 उच्चारस्थान - उपवास और देशावगासिक प्रत्याख्यान के होते हैं। पाणस्स प्रत्याख्यान ग्रहण करने के स्थान अचित्त पानी पीने सम्बन्धी प्रत्याख्यान ग्रहण करना पाणस्स प्रत्याख्यान कहलाता है। इस प्रत्याख्यान में छ: आगार (अपवाद) रखे जाते हैं। प्रत्याख्यान भाष्य के अनुसार यह प्रत्याख्यान निम्न स्थितियों में ग्रहण किया जाता है - 1. तिविहार उपवास का प्रत्याख्यान करते समय, 2. एकासन आदि करने के पश्चात तिविहार का प्रत्याख्यान करते समय, 3. एकासन आदि दुविध आहार वाला हो, तो उसमें भी अचित्त भोजन की अपेक्षा पाणस्स का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए । 4. उष्ण जल पीने वाले श्रावकों के द्वारा पाणस्स का प्रत्याख्यान लिया जाना चाहिए। सामान्यतया अचित्त भोजन के साथ अचित्त जल सेवन का विधान है। एकासना, बियासना, आयंबिल आदि प्रत्याख्यानों में अचित्त भोजन का सेवन किया जाता है इसलिए इन प्रत्याख्यानों में उबाला हुआ अचित्त जल ही पीते हैं। जैनाचार्यों के मतानुसार अचित्त जल का सेवन करने वालों को पाणस्स का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए। 86 प्रत्याख्यान - प्रतिपादन विधि 1444 ग्रन्थों के रचयिता आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार यदि प्रत्याख्यान विषय का प्रतिपादन करना हो, तो सर्वप्रथम प्राणातिपात विरमण आदि पाँच महाव्रत रूप साधु धर्म का प्रतिपादन करें, फिर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। यदि सर्वप्रथम श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया जाये तो उसे सुनकर श्रोता की मानसिकता में परिवर्तन आ सकता है, वह शक्तिसम्पन्न होने पर भी श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहेगा, साधु धर्म को नहीं। यह कथन मूल गुणों के सन्दर्भ में है।

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