Book Title: Shadavashyak Ki Upadeyta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 412
________________ 354... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में उठा न सके या पृथक् न कर सके उस तरह की आर्द्र विगई रखी गई हो, तो रूक्ष रोटी आदि ग्रहण नहीं कर सकते हैं। इससे व्रतभंग होता है । 16. लेपकृत- चावल, तिल, खजूर, द्राक्ष आदि का धोया हुआ पानी जो पात्र को कुछ चिकना बनाता है, वैसा गृहस्थ द्वारा बहराया गया जल ग्रहण करना अथवा उसके स्वयं के द्वारा ऐसे पानी का उपयोग करना, लेपकृत आगार है। मुनि हमेशा अचित्त जल ही पीते हैं, गृहस्थ भी एकासन आदि में अचित्त जल का उपयोग करते हैं । पाणाहार के पच्चक्खाण में लेपकृत आदि छः प्रकार के अपवाद रखे गये हैं, जिससे अमुक-अमुक प्रकार का जल पीने में आ जाए तो उपवास आदि प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। 17. अलेपकृत- कांजी, छाछ के ऊपर का पानी, राख का पानी आदि, जिसमें खाद्य वस्तुओं के कण आदि रहने की शक्यता ही नहीं रहती है, उपवास आदि में वैसा जल ग्रहण करना अलेपकृत आगार है । 18. अच्छ— अच्छ अर्थात स्वच्छ, तीन बार उबाला हुआ जल ग्रहण करना अच्छ आगार है। 19. बहुलेप- बहुल अर्थात धोवण । चावल, तिल आदि का धोया हुआ पानी ग्रहण करना बहुलेप आगार है। 20. ससिक्थ- सिक्थ अर्थात धान्यकण, जिस पानी में पके हुए चावल आदि के कण रह गए हो, वैसा जल ग्रहण करना अथवा पकाए हुए चावल या मांड़ दाना या ओसामण युक्त पानी को वस्त्र से छानकर उपयोग करना ससिक्थ आगार है। 21. असिक्थ- आटे के कण का नितरा हुआ पानी अथवा पूर्वोक्त प्रकार का छाना हुआ पानी ग्रहण करना असिक्थ आगार है । 22. प्रतीत्यम्रक्षित - प्रतीत्य- अपेक्षाकृत, सर्वथा रूक्ष मांड आदि की अपेक्षा, म्रक्षित - चुपड़ा हुआ। बिल्कुल रूक्ष की अपेक्षा थोड़ा (नहीं के बराबर) चुपड़ा हुआ आहार नीवि में ग्रहण करना प्रतीत्यम्रक्षित आगार है। 72 इन बाईस आगारों का वर्णन इसलिए किया गया है कि नवकारसी से नीवि पर्यन्त दस प्रकार के प्रत्याख्यान में अनिच्छा एवं अज्ञानता वश उपरोक्त दोष (अतिचार) लगने की संभावना रहती हैं, अतः जैन मत में इन्हें आगार रूप माना गया है। प्रत्याख्यान लेते समय पहले से ही उन दोषों की छूट रख दी जाए

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