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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ... 295
सहज रूप से ढीला छोड़कर एवं मानसिक संकल्प-विकल्प आदि को त्याग कर कायोत्सर्ग करने से शारीरिक तनाव दूर होता है साथ ही मानसिक ग्रंथियाँ भी ढीली हो जाती है इससे मन तनाव मुक्त होकर स्वच्छ-निर्मल हो जाता है और पाप कर्म भी विनष्ट हो जाते हैं।
कायोत्सर्ग अन्तर्मुखी एवं देहाध्यास विरक्ति की साधना है। अतः इसकी मूल्यवत्ता कई दृष्टियों से रेखांकित की जा सकती है।
आध्यात्मिक दृष्टि से - आवश्यकनियुक्ति के कर्त्ता आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग को मंगल कहा है और इसे पाप (अमंगल ) निवारण का हेतु बतलाया है। वे कहते हैं कि हमारे कार्य में विघ्न न आ जाए, इस दृष्टि से कार्य के प्रारम्भ में मंगल का अनुष्ठान ( कायोत्सर्ग) करणीय है | 81
उत्तराध्ययनसूत्र में कायोत्सर्ग को सर्व दुःखों का विमोक्ष (क्षीण) करने वाला माना गया है।82 इस कथन को पुष्ट करते हुए नियुक्तिकार पुनः कहते हैं कि मैंने संसार में जितने दुःखों का अनुभव किया है, उनसे अति दुःसह्य और अनुपम दुःख नरक के होते हैं- यह सोचकर निर्ममत्व की साधना करने वाला मुनि अपने कर्मों को क्षीण करने के लिए कायोत्सर्ग करें। 83 इसी विषय में आगे कहा गया है कि जिस प्रकार कायोत्सर्ग में लम्बे समय तक निःस्पन्द खड़े होने पर अंग-अंग टूटने लगते हैं, दुखने लगते हैं उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा अष्टविध कर्म - समूह को पीड़ित करते हैं एवं उन्हें नष्ट कर डालते हैं। 84
मूलाचार में भी इसे कर्मभिद् माना गया है और कहा गया है कि जो मोक्षमार्ग का उपदेशक है; ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तरायइन घाति कर्मों का विध्वंसक है, जिनेश्वर देवों द्वारा सेवन किया गया है और उन्हीं के द्वारा कहा गया है ऐसे कायोत्सर्ग का मैं अधिष्ठान करना चाहता हूँ 185
इसमें विविध स्थानों से लगने वाले दोषों से आत्मा को विशुद्ध करने हेतु भी कायोत्सर्ग का उपदेश दिया गया है और कहा है कि अज्ञान, राग-द्वेष, चार कषाय, सात भय, आठ मद - इनके द्वारा तीन गुप्ति, पाँच व्रत, छह जीवनिकाय, नव ब्रह्मचर्य गुप्ति और दस धर्म- इन संयम स्थानों में जो अतिचार लगे हों, उन दोषों को क्षीण करने के लिए मैं कायोत्सर्ग का अनुष्ठान करता हूँ। 86