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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ... 157
बाधक राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, काम, क्रोध आदि भाव कर्मों को तथा ज्ञानावरणीयादि द्रव्य कर्मों को जीत लिया है, वे जिन हैं।
अरिहंते - अरिहन्त यानी अरि + हन्त आन्तरिक क्रोधादि शत्रुओं का नाश करने वाले ।
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महानिशीथसूत्र में अरिहंतपद की विस्तृत व्याख्या की गई है। 52 कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली- केवलज्ञान को प्रकट करने वाले चौबीस तीर्थंकरों का नामोच्चारण पूर्वक स्तवन करूँगा।
यहाँ ‘पि’ पद अर्थात ‘अपि' अव्यय अनेक अर्थों में प्रयुक्त है। नियुक्तिकार ने ऐरवत क्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र में होने वाले तीर्थंकरों को ग्रहण किया है। 53 आचार्य हरिभद्र ने वर्तमान के चौवीश तीर्थंकरों से भिन्न अन्य तीर्थंकरों के समुच्चय अर्थ का संकेत किया है। 54 वर्तमान चौवीशी के समुच्चय अर्थ में भी इसे स्वीकार किया गया है।
द्वितीय खंड - दूसरी से चौथी गाथा तक वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का नाम पूर्वक स्मरण करते हुए उन्हें वंदन किया गया है। प्रेमचन्द्र जैन के अनुसार इन गाथाओं में यह विशेषता है कि प्रत्येक तीर्थंकर का नाम उनके जीवन से सम्बन्धित घटना विशेष के आधार पर अथवा विशेष अर्थ रूप में वर्णित है। नौवें तीर्थंकर के दो नाम श्री सुविधिनाथजी तथा पुष्पदंत जी इसमें प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ इस तीर्थंकर के दो नाम कहने के पीछे क्या प्रयोजन है, स्पष्ट नहीं हो पाया है। संभवत: ग्रन्थकारों ने इस सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। ये तीन गाथाएँ अशाश्वत होती है क्योंकि जिस काल में जो चौबीसी होती है, उसी के अनुसार इनकी रचना मानी गई है। 55
दूसरी, तीसरी एवं चौथी गाथा का अर्थ अत्यन्त सरल है, केवल चौबीस तीर्थंकरों के नाम पूर्वक उन्हें वंदन किया गया है। कुछ उल्लेखनीय मुद्दे निम्न हैं
वंदे-उपर्युक्त तीन गाथा में तीन बार 'वंदे' और दो बार 'वंदामि' शब्द का प्रयोग हुआ है। सूत्रकार का इसके पीछे क्या आशय था, समझ नहीं पाये हैं। किन्तु वंदे-वंदामि पद के द्वारा बार-बार वंदन करने का प्रयोजन बतलाते हुए चैत्यवंदन महाभाष्य में कहा गया है कि इन सूत्रों में पुनः पुनः वंदनार्थक क्रियापद का प्रयोग आप्त पुरुषों के प्रति आदर भाव प्रदर्शित करने के लिए है