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184... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
अंगुलियों से स्पर्श करते हुए अनुदात्त स्वर में बोलें।
ता - शब्द, गुरुचरणों की स्थापना से उठाये हुए दोनों हाथों को हृदय की सीध में रखते हुए स्वरित स्वर में बोलें।
भे
शब्द, दृष्टि को गुरु के समक्ष रखते हुए और दोनों हाथों को ललाट पर लगाते हुए उदात्त स्वर में बोलें।
1
ज शब्द, कल्पित गुरुचरणों की स्थापना को दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से स्पर्श करते हुए, अनुदात्त स्वर में बोलें।
व
शब्द, गुरु चरणों की स्थापना से उठाये हुए दोनों हाथों को हृदय की सीध में रखते हुए स्वरित स्वर में बोलें।
णि
शब्द, दोनों हाथों को ललाट पर स्पर्शित करते हुए उदात्त स्वर में
बोलें।
ज्जं - शब्द, गुरुचरणों की स्थापना को दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए अनुदात्त स्वर में बोलें।
च
शब्द, चरणों की स्थापना से उठाये हुए दोनों हाथों को हृदय की सीध में चौड़े करते हुए स्वरित स्वर में बोलें।
भे - शब्द, दोनों हाथों को ललाट पर स्पर्शित करते हुए उदात्त स्वर में बोलें।
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7. खामेमि खमासमणो - यह पद मुखवस्त्रिका पर अंजलिबद्ध हाथों को स्थापित करते हु और मस्तक को लगाते हुए बोलें। फिर खड़े होकर 'देवसिय वइक्कमं आवस्सियाए' इस पद को बोलते हुए अवग्रह से बाहर निकलें। फिर ऊर्ध्वस्थित मुद्रा में ही 'पडिक्कमामि खमासमणाणं' से 'अप्पाणं वोसिरामि' तक शेष पाठ बोलें। इसी तरह दूसरी बार द्वादशावर्त्तवन्दन करते हुए 'आवस्सियाए' शब्द को छोड़कर शेष पाठ अवग्रह में ही खड़े होकर बोलें।
निष्पत्ति - श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की खरतरगच्छ, तपागच्छ, अचलगच्छ, पायच्छंदगच्छ, त्रिस्तुतिकगच्छ आदि परम्पराओं में वन्दन के तीनों प्रकार प्रचलित हैं। इसी के साथ वन्दन विधि एवं तद्विषयक सूत्रपाठों को लेकर सभी में पूर्ण समानता है।
स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में पूर्वोक्त तीनों वन्दन मान्य हैं किन्तु उनमें सूत्रभेद एवं विधिभेद है। प्रथम फेटावंदन मंदिरमार्गी परम्परा के समान ही