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284...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
कायोत्सर्ग ध्यान का प्रबल निमित्त है। ध्यान के लिए कायोत्सर्ग उतना ही जरूरी है जितना कि भोजन के लिए स्वस्थ पाचन-तंत्र का होना जरूरी है। यदि पाचन-तंत्र स्वस्थ न हो तो भोजन का कोई परिणाम नहीं आयेगा। स्वस्थ पाचन तंत्र में ही आहार रस रूप में परिणमन पाता है, उसका शरीर के लिए उपयोग होता है, उसी तरह जब तक कायोत्सर्ग सम्यक् नहीं सधता तब तक ध्यान का अवतरण नहीं हो सकता।
महर्षि पतंजलि ने भी अष्टांगयोग की अवधारणा में प्रत्याहार रूप कायोत्सर्ग के पश्चात ही ध्यान को स्थान दिया है और ध्यान साधना के लिए इसके पूर्व के आसन, प्राणायाम, यम, नियम, प्रत्याहार और धारणा- इन छ: अंगों को पृष्ठभूमि के रूप में अत्यन्त आवश्यक माना है। कायोत्सर्ग और विपश्यना
जैन परम्परा का कायोत्सर्ग और बौद्धमार्गी विपश्यना दोनों में श्वासप्रेक्षा की दृष्टि से समानता है। जैसे कायोत्सर्ग में अमुक श्वासोच्छ्वास का पर्यावलोकन किया जाता है वैसे ही विपश्यना पद्धति में आते-जाते हुए श्वास को देखने का प्रयत्न किया जाता है। विपश्यना ध्यान का मूल आधार श्वासप्रेक्षा है। बौद्ध दर्शन में अष्टांगिक-मार्ग की अवधारणा है जो तीन भागों में विभाजित है- शील, समाधि और प्रज्ञा।66
शील के अन्तर्गत निम्न तीन अंग समाहित हैं
1. सम्मा वाचा- सम्यक भाषण करना, असत्य, कठोर एवं निरर्थक भाषण नहीं करना।
2. सम्मा कम्मन्तो- सम्यक कर्म करना। हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मादकपदार्थों के सेवन आदि से विरत होना।
3. सम्मा आजीवो- सम्यक आजीविका रूप व्यापार करना। समाधि के अन्तर्गत निम्नोक्त तीन अंग समाविष्ट होते हैं
1. सम्मा वायामो- सम्यक व्यायाम करना। मन के विशुद्धिकरण हेतु मन का निरीक्षण करना, मन में जो दुर्गुण हैं उन्हें बाहर निकालना, दुर्गुणों को आने न देना, जो सद्गुण हैं उन्हें कायम रखने का प्रयत्न करना, उसका संवर्द्धन करना, जो सद्गुण अपने में नहीं है, उन्हें प्राप्त करना, यह सम्यक व्यायाम है।