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222... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
अनाश्लिष्ट, चूडलिक आदि कुछ दोष श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर के अनगारधर्मामृत एवं मूलाचार में भी दोषों के नाम आदि में किंचिद् अन्तर है। स्पष्टबोध के लिए दिगम्बर मान्य 32 दोषों के नाम निम्न प्रकार है
से
1.अनादृत- अनादर भाव से वन्दन करना। 2. स्तब्ध - जाति आदि के मद युक्त होकर वन्दन करना। 3. प्रविष्ट - अर्हन्त आदि परमेष्ठियों के अति निकट होकर वन्दन करना। 4. परिपीड़ित - अपने हाथों से घुटनों का संस्पर्श करते हुए वन्दन करना। 5. दोलायित - झूले की तरह शरीर को आगे-पीछे करते हुए वन्दन करना। 6. अंकुशित - अपने मस्तक पर अंकुश की तरह अंगूठा रखते हुए वन्दन करना। 7. कच्छ परिङ्गित- कछुए की तरह बैठे-बैठे ही सरकते हुए या कटिभाग को इधर-उधर करते हुए वन्दन करना। 8. मत्स्योद्वर्त्त - मछली की भाँति एक पार्श्व से उछलते हुए वन्दन करना। 9. मनोदुष्ट- गुरु आदि के प्रति चित्त में खेद पैदा करते हुए वन्दन करना। 10. वेदिकाबद्ध- दोनों हाथों से दोनों घुटनों को बाँधते हुए या दोनों हाथों से दोनों स्तनों को दबाते हुए वन्दन करना। 11. भय- सात प्रकार के भय से वन्दन करना ।
12. विभ्यता- आचार्य के भय से कृतिकर्म करना। 13. ऋद्धि गौरवसंघ के मुनि मेरे भक्त बन जायेंगे, इस भावना से वन्दन करना। 14. गौरवयश या आहार आदि की इच्छा से वन्दन करना 15. स्तेनित- गुरु आदि से छिपकर वन्दन करना। 16. प्रतिनीत - प्रतिकूल वृत्ति एवं गुरु अवज्ञा करते हुए वन्दन करना। 17. प्रद्वेष - वन्दनीय के साथ कलह आदि हुआ हो तो उनसे क्षमा न मांगते हुए वन्दन करना। 18 तर्जित - अपनी तर्जनी अंगुली से भय दिखाते हुए वन्दन करना। 19. शब्द- वार्त्तालाप करते हुए वन्दन करना। मूलाचार (7/108) की टीका में शब्ददोष के स्थान पर शाठ्यदोष का उल्लेख है। शठता से या प्रपंच से वन्दन करना शाठ्य दोष है। 20. हेलितदूसरों का उपहास आदि करते हुए या आचार्य आदि का वचन से तिरस्कार करते हुए
वन्दन
करना।
21. त्रिवलित-मस्तक में त्रिवली डालकर वन्दन करना।
22. कुंचित- कुंचित हाथों से सिर का स्पर्श करते हुए वन्दन करना । 23. दृष्ट- अन्य दिशा की ओर देखते हुए वन्दन करना । 24. अदृष्ट - गुरु की आँखों