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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...223 से ओझल होते हुए वन्दन करना। 25. संघकर मोचन- वन्दना को संघ की ज्यादती मानते हुए करना। मूलाचार (7/1093) की टीका में 'संघ को कर चुकाना' मानते हुए वन्दन करना, ऐसा अर्थ किया है। 26. आलब्ध- उपकरण आदि की प्राप्ति होने के कारण वन्दन करना। 27. अनालब्ध- उपकरण प्राप्ति के आशय से वन्दन करना। 28. हीन-सूत्रार्थ और कालादि के प्रमाणानुसार वन्दन नहीं करना। 29. उत्तरचूलिका- वन्दन क्रिया शीघ्र करके उसकी चूलिका रूप आलोचना आदि में अधिक समय लगाना। 30 मूक- मूक की तरह मुख में ही सूत्रोच्चारण करते हुए वन्दन करना। 31. दर्दुर- दूसरों के शब्द सुनाई न दे सके, इस तरह उच्च स्वर से सूत्रपाठ बोलते हुए वन्दन करना। 32. सुललितसूत्रपाठ को पंचम स्वर में गाते हुए वन्दन करना। मूलाचार में अन्तिम दोष का नाम चुलुलित है। इसका अर्थ- एक प्रदेश में स्थित होकर हाथों को मुकुलित करके एवं घुमा करके सभी को वन्दन करना भी किया है।88 ।
उपर्युक्त विवरण से विविध संप्रदायों में अन्तर्निहित वन्दना के दोषों का स्वरूप भेद भी स्पष्ट हो जाता है। आवश्यक कर्ता को इन दोषों का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। जैनाचार्यों ने कहा है कि जो भव्यात्मा 32 दोषों से रहित अत्यंत शुद्ध भाव से कृतिकर्म (द्वादशावर्त वंदन) करता है वह शीघ्रमेव निर्वाण पद को या वैमानिक देवलोक को प्राप्त करता है। मोक्षमार्ग में वन्दन का स्थान
गुरु के प्रति भक्ति और बहुमान को प्रकट करना हमारी कल्याणपरम्पराओं का मूल स्रोत है। आचार्य उमास्वाति का कथन है कि सद्गुरु के प्रति विनय भाव रखने से सेवाभाव का उदय होता है, सेवा करने से शास्त्रों के गंभीर ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान का फल पापाचार से निवृत्ति है और पापाचार की निवृत्ति का फल आस्रव निरोध है।
आस्रवनिरोध रूप संवर का फल तपश्चरण हैं, तपश्चरण से कर्मफल की निर्जरा होती है, निर्जरा के द्वारा क्रिया की निवृत्ति और क्रिया निवृत्ति से मन, वचन व काययोग पर विजय प्राप्त होती है।
त्रियोग पर विजय प्राप्त करने के पश्चात जन्म-मरण की दीर्घ परम्परा का क्षय होता है और उससे आत्मा को मोक्षपद की संप्राप्ति होती है। इस कार्य कारण भाव की निश्चित श्रृंखला से सूचित होता है कि समग्र कल्याणों का