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264...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
2. कोई हिंसक प्राणी सन्मुख आ जाए अथवा उस स्थान पर अन्य प्राणी का छेदन-भेदन करने लगे तो अन्य अनुकूल स्थान पर जा सकते हैं। 3. कोई चोर या राजा आकर समाधि भंग करने जैसे प्रयत्न करने लगे तो उस समय कायोत्सर्ग पूर्ण करने से पहले दूसरी जगह जा सकते हैं। 4. सर्प डस ले या सर्पदंश की संभावना हो तो स्थानान्तर हो सकते हैं।
उक्त संयोगों में कायोत्सर्ग को विधिपूर्वक पूर्ण न कर सकें तब भी कायोत्सर्ग का भंग नहीं होता है। उपरोक्त चार आगार मुख्यतया श्मशान भूमि, शून्यगृह या अरण्य भूमि की अपेक्षा समझने चाहिए क्योंकि अग्नि, चोर, हिंसक पशु आदि के उपद्रव जंगल आदि में विशेष होते हैं। कितनी ही बार विशिष्ट साधना के बावजूद भी विकट संयोगों में आत्मस्थिर रह पाना मुश्किल हो जाता है, उस स्थिति में किंचिद् अपवाद रख सकते हैं। कायोत्सर्ग के योग्य दिशा, क्षेत्र एवं मुद्राएँ
पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके अथवा जिस दिशा में जिनप्रतिमा स्थित हो, उस तरफ मुख करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग साधना में उपस्थित होने से पूर्व प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रहइन पाँच आश्रवद्वारों से निवृत्त होना चाहिए ।
जहाँ दूसरों का आना-जाना न हो, किसी तरह का विक्षेप उत्पन्न न हो, निकट में कोलाहल न हो, ऐसे एकान्त, निर्जन एवं अबाधित स्थान में कायोत्सर्ग करना चाहिए। 35
कायोत्सर्ग खड़े होकर, बैठकर और लेटकर - तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है।
1. खड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला जिनमुद्रा में स्थित होवें । इस मुद्रा में कायोत्सर्ग करने की रीति इस प्रकार है
दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटका दें, पैरों को सम रेखा में रखें, एड़ियाँ मिली हों, दोनों पैरों के पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर हो, दाएँ हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएँ हाथ में रजोहरण या चरवला धारण करें, फिर शरीर की समस्त चेष्टाओं का विसर्जन कर, विशेष रूप से अपनी अवस्था और शक्ति के अनुरूप स्थाणु की भाँति निष्प्रकंप खड़े होकर कायोत्सर्ग करें | 36
2. बैठी मुद्रा में कायोत्सर्ग करने वाला पद्मासन या सुखासन में बैठें। हाथों को घुटनों पर रखें या बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर उन्हें अंक में रखें।