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216... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में हुए जवाब देना ।
25. नोसुमन - सुमन - अच्छा मन, नो- नहीं। गुरु पर्षदा के बीच प्रवचन आदि करें, तब उनकी प्रशंसा करनी चाहिए कि 'अहो ! आपने बहुत अच्छा कहा । " किन्तु शिष्य के द्वारा प्रशंसा न करके मन बिगाड़ना, मुँह बिगाड़ना, मुझसे भी अधिक व्याख्यान कला है ? आदि विचारों से ईर्ष्याभाव करना ।
26. नोस्मरण - गुरु व्याख्यान दे रहे हो, तब शिष्य के द्वारा बीच में यह कहना कि- “आपको याद नहीं है, इसका अर्थ इस तरह नहीं है" आदि ।
27. कथाछेद - गुरु धर्मकथा कर रहे हो तब शिष्य के द्वारा श्रोताओं को यह कहना कि – ‘यह कथा मैं तुम लोगों को बाद में अच्छी तरह समझाऊँगा' अथवा 'अब मैं प्रवनच करूंगा' ऐसा कहकर गुरु द्वारा चल रहे व्याख्यान का भंग करना ।
28. परिषद् भेद - गुरु व्याख्यान कर रहे हो और पर्षदा जिनवाणी को सुनने में तन्मय हो रही हो, तब शिष्य के द्वारा यह कहना कि 'अभी प्रवचन कितना लम्बा करोगे, गोचरी का समय हो गया है, अथवा सूत्र पौरूषी का समय हो चुका है' इस तरह सभाजनों के चित्त का भंग करना। यदि पहले से ही कुछ लोग उठकर जा रहे हों तब भी आशातना होती है।
29. अनुत्थित कथा - गुरु व्याख्यान कर रहे हो उस दौरान अथवा प्रवचन पूर्ण होने के तुरन्त बाद पर्षदा बैठी हुई हो, उस समय स्वयं की विद्वत्ता दर्शाने के लिए गुरु द्वारा उपदिष्ट तत्त्व अथवा अर्थ का विस्तृत प्रतिपादन करना अथवा कुछ नया ज्ञान प्रदान करना।
30. संथारपादघट्टन - गुरु की शय्या संस्तारक आदि के पैर लगने पर या अनुमति के बिना स्पर्श करने पर उनसे क्षमायाचना नहीं करना आशातना है । गुरु से सम्बद्ध होने के कारण गुरु के उपकरण भी पूज्य होते हैं अतः उनकी आज्ञा के बिना उन धर्मोपकरणों को छूना भी नहीं चाहिए। शय्या - साढ़े तीन हाथ की शरीर परिमाण होती है और संस्तारक - ढाई हाथ परिमाण होता है । 31. संथारावस्थान- गुरु के संस्तारक पर सोना, बैठना या करवट आदि
बदलना।
32. उच्चासन- गुरु के सम्मुख ऊँचे आसन पर बैठना। 33. समासन- गुरु के समक्ष समान आसन पर बैठना ।