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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...195
चारित्रनिष्ठ मनियों के प्रति तीन प्रकार के अपराध सम्भव है
1. अप्रीति या विशेष अप्रीति उत्पन्न करने वाले कार्यों में जैसे-आहारपानी, औपचारिक विनय, दशविध वैयावृत्य, आसन ग्रहण और वार्तालाप आदि प्रसंगों में अपराध होना सम्भव है।
2. किसी तरह के अविनय कृत्य से, जिसका शिष्य को ध्यान हो।
3. किसी तरह के अविनय आचरण से, जिसका शिष्य को ध्यान न हो, परन्तु गुरु को बराबर ध्यान में हो।
__ अब्भुट्ठिओसूत्र द्वारा 'जं किंचि अपत्तिअं परपत्तिअं भत्ते पाणे विणए वेआवच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए"इतने पद बोलकर प्रथम प्रकार के अपराधों की क्षमा मांगते हैं।
फिर 'जं किंचि मज्झ विणय परिहीणं सुहुमं वा बायरं वा'- ये पद बोलकर दूसरे प्रकार के अपराधों की क्षमापना करते हैं और अन्त में 'तुब्भे जाणह, अहं न जाणामि तस्स मिच्छामि दुक्कडं'- इतना पाठ कहकर तीसरे प्रकार के अपराधों की क्षमायाचना करते हैं।49
आवश्यकसूत्र के पाँचवें अध्ययन में शब्दान्तर से यह पाठ उपलब्ध है।
सुगुरुवंदनसूत्र- गुरु को द्वादशावर्त वंदन करते समय यह सूत्र बोला जाता है, अत: इसका नाम गुरुवंदनसूत्र है। यहाँ गुरु शब्द से अभिप्रेत आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और रत्नाधिक- इन पदस्थ मुनियों से है। गुरु शब्द सद्गुरु का वाचक है, नामधारी गुरुओं का वाचक नहीं है अत: सद्गुरु ही वंदन करने योग्य है।
पूर्वनिर्दिष्ट वंदन के तीन प्रकारों में यह वंदन का उत्कृष्ट प्रकार है तथा द्वादशावर्त वंदन मुख्य होने से इस सूत्र को 'द्वादशावर्त वन्दनसूत्र' भी कहा जाता है।
श्वेताम्बर परम्परानुसार संकल्प रूप से स्थापित गुरु के चरणों का स्पर्श करके स्वयं के मस्तक का स्पर्श करना, आवर्त कहलाता है। एक वंदन में छ: आवर्त्त होते हैं, इसलिए दो बार वंदन करने पर बारह आवर्त्त होते हैं। ____सामान्यतया गुरुवंदन को वंदनकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म कहा जाता है। इन पाँचों वन्दन में द्वादशावर्तवंदन के लिए 'कृतिकर्म' शब्द का प्रयोग होता है।