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204...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
श्रावक को साध्वी से- तेरह हाथ दूर रहकर वन्दन करना चाहिए।
दिगम्बर परम्परानुसार देव, आचार्य आदि की वन्दना करते समय साधु को कम से कम एक हाथ दूर रहना चाहिए तथा वन्दना के पूर्व पिच्छिका से शरीर आदि का प्रमार्जन करना चाहिए।65 आर्यिकाओं को पाँच हाथ की दूरी से आचार्य की, छह हाथ की दूरी से उपाध्याय की और सात हाथ की दूरी से श्रमण की वन्दना गवासन मैं बैठकर करनी चाहिए। गुरु वन्दना को शुद्ध भाव से स्वीकार करते हुए प्रत्युत्तर में आशीर्वाद दें।66 ___ इस मर्यादा का निर्वहन करने पर गुरु सम्बन्धी आशातनाओं से बचाव होता है तथा इनका यथोचित अनुसरण करना परमकल्याण का हेतुभूत है। ___वर्तमान में चरणस्पर्श या जानुस्पर्श पूर्वक वन्दन करने की जो परम्परा है, वह नियमविरुद्ध है। श्वेताम्बर परम्परा में ज्येष्ठ साधु को कनिष्ठ साधु, साधु को साध्वी, बड़ी साध्वी को छोटी साध्वी वन्दन करते समय विधिपूर्वक सूत्र बोलते हैं। उसके पश्चात वन्दन करने वाला ‘मत्थएण वंदामि' शब्द पूर्वक जिनको वन्दन किया गया है उनसे सुखपृच्छा करता है तब प्रत्युत्तर में गुरु या ज्येष्ठ साधू अपने से छोटे साधु-साध्वी से स्वयं भी मस्तक झुकाते हुए 'मत्थएण वंदामि' शब्द पूर्वक 'देव-गुरु पसाय' कहते हैं।
यदि श्रावक-श्राविका साधु या साध्वी को वन्दन करें तब वन्दन विधि एवं सुखपृच्छा विधि पूर्ववत ही करते हैं परन्तु साधु-साध्वी प्रत्युत्तर में 'धर्मलाभ' कहते हैं। _ दिगम्बर परम्परा में वन्दन करते समय ऐलक और क्षुल्लक परस्पर 'इच्छामि' कहते हैं। मुनियों को सभी लोग 'नमोऽस्तु' (नमस्कार हो) तथा आर्यिकाओं को 'वंदामि' (वन्दन करता हूँ) कहते हैं। मुनि और आर्यिकाएँ नमस्कार करने वालों को निम्न पद बोलकर आशीर्वाद देते हैं- यदि व्रती हों तो 'समाधिरस्तु' (समाधि की प्राप्ति हो) या 'कर्मक्षयोऽस्तु' (कर्मों का क्षय हो), अव्रती श्रावक-श्राविकाएँ हों तो 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' (सद्धर्म की वृद्धि हो) 'शुभमस्तु' (शुभ हो) या 'शान्तिरस्तु' (शान्ति हो), यदि अन्य धर्मावलम्बी हों तो 'धर्मलाभोऽस्तु' (धर्मलाभ हो), यदि निम्नकोटि वाले (चाण्डालादि) हों तो 'पापक्षयोऽस्तु' (पाप का विनाश हो)।67 कृतिकर्म (द्वादशावर्त्तवन्दन) कब करना चाहिए?