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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...197 कहलाती है। द्वादशावर्त्तवंदन करते समय 'अहो-काय-काय' ये तीन और 'जत्ता भे, जवणि, ज्जं च भे'- ये तीन पद बोलते हुए मुखवस्त्रिका या चरवले पर कल्पित गुरु के चरण कमलों का हाथों से स्पर्श कर, फिर मस्तक से स्पर्श करना आवर्त कहलाता है।
प्रथम बार के वन्दन में अहो...कायं...काय संफासं = 3 आवर्त्त, जत्ता भे...जवणि...जं च भे = 3 आवर्त
इसी तरह दूसरी बार के वन्दन में 6 आवर्त होते हैं। इस प्रकार 6 + 6 = 12 आवर्त्त होते हैं।
'अहो कायं...' आदि बोलने की विशिष्ट रीति बता चुके हैं।
शिरोनमन- द्वादशावर्त वन्दन करते समय पूरी तरह से मस्तक झुकाना, शिरोनमन है। इस वन्दन के बीच चार बार सिर-नमन होता है। एक मतानुसार शिष्य के दो तथा गुरु के दो-ऐसे चार शिर नमन होते हैं।
'खामेमि खमासमणो...देवसियं वइक्कम...' यह पद बोलते हुए शिष्य के द्वारा मस्तक झुकाना।
___ 'अहमवि खामेमि तुमं...' यह सुगुरुवंदनसूत्र का मूल पद नहीं है, किन्तु शिष्य के द्वारा क्षमायाचना की जाने पर गुरु भी प्रत्युत्तर में क्षमापना करते हुए किंचिद् झुकते हैं। इस प्रकार दुबारा वन्दन करते समय शिष्य का और गुरु का 1-1 नमन। इस तरह दो बार में चार शिरोनमन होते हैं। अन्य मतानुसार 'कायसंफासं' पद बोलते हुए अपने मस्तक को गुरु चरणों में झुकाना अथवा मुखवस्त्रिका पर कर युगल को स्थापित कर उस पर मस्तक लगाना एक शिरोनमन है और 'खामेमि खमासमणो! देवसियं वइक्कम' पद बोलते हुए अपने मस्तक को पुन: गुरु चरणों में झुकाना, दूसरा शिरोनमन है। इस प्रकार दुबारा वन्दन करते समय भी पूर्ववत दो शिरोनमन होते हैं ऐसे कुल चार शिरोनमन हो जाते हैं। ये चारों ‘सिरनमन' शिष्य के ही हैं। वर्तमान में यही व्यवहार प्रचलित है।
यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दो अवनमन भी शीर्ष नमन है और चार शीर्ष नमन में भी वही है, फिर इन दोनों आवश्यकों में क्या अन्तर है? इसका समाधान है कि अवनत आवश्यक में शिष्य के किंचिद् नमन की अपेक्षा रहती है, जबकि शीर्ष आवश्यक में नमन करते हुए समग्र शीर्ष की और उसमें