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182...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
2. थोभ वंदन- सर्वप्रथम ‘इच्छामि खमासमणो' के पाठ से दो बार पंचांग प्रणिपात करें। फिर अर्धावनत मुद्रा में खड़े होकर ‘इच्छकार सुहराई' पाठ से सुखपृच्छा करें।
सुखपृच्छासूत्र- इच्छकार भगवन्! सुहराई? (सुहदेवसी) सुख तप शरीर निराबाध? सुख-संयम-यात्रा निर्वहते हो जी? स्वामिन्। शाता है जी? ___ फिर 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ से एक बार वन्दना करें। पश्चात अर्धावनत मुद्रा में निम्न पाठ बोलते हुए आज्ञा लें।
"इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! अन्भुट्टिओमि अभिंतर राइयं (देवसियं) खामेडं! इच्छं खामेमि" बोलते हुए पाँचों अंग झुकाकर दाहिना हाथ जमीन पर और बायाँ हाथ मुख पर लगाकर 'गुरु क्षमापना' पाठ बोलें।
गुरु क्षमापनासूत्र- इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! अन्भुट्ठिओमि अम्भिंतर राइयं खामेडं। इच्छं, खामेमि)- राइयं (देवसियं) जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं, भत्ते, पाणे, विणए, वेयावच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतर भासाए, उवरि भासाए, जं किंचि मज्झ विणय परिहीणं, सुहुमं वा बायरं वा तुन्भे जाणह अहं न जाणामि तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
यह वन्दन पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वियों को किया जाता है। जैसे स्थानकवासी परम्परा में तीन बार ‘तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दन करते हैं वैसे ही मूर्तिपूजक परम्परा में पूर्वोक्त सुखपृच्छासूत्र एवं गुरु क्षमापनासूत्र बोलकर गुरुवन्दन करते हैं।
3. द्वादशावर्त्त वन्दन- बारह आवर्त आदि विशिष्ट मुद्राओं के द्वारा वन्दन करना द्वादशावर्त्तवन्दन है। परम्परागत सामाचारी के अनुसार आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और रत्नाधिक- इन पदस्थ मुनियों को यही वन्दन किया जाता है। तृतीय वन्दन आवश्यक से अभिप्रेत इसी वन्दन से है। इस वन्दन का यथावत पालन करने वाला वन्दन आवश्यक का कर्ता होता है। इस आवश्यक काल में प्रतिपाद्यमान विधि-प्रक्रिया के अनुसार सुगुरुवंदनसूत्र (द्वादशावर्तसूत्र) बोला जाता है। उसका मूलपाठ यह है