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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...187
आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में कृतिकर्म किया जाता है। जैसे कि देववन्दन का समय है और चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना है तो उसके प्रारम्भ
1. पूर्व या उत्तराभिमुख खड़े होकर अथवा योग्य आसन में बैठकर निम्न वाक्य का उच्चारण करें____ "अथ पौर्वाह्निक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्री चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं"- यह कायोत्सर्ग के लिए प्रतिज्ञा वचन है।
2. तदनन्तर भूमि स्पर्श करते हुए पंचांग नमस्कार (वन्दन) करें। यह एक अवनति हुई। 3. तदनन्तर पूर्ववत खड़े होकर या बैठकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके “णमो अरिहंताणं...चत्तारिमंगलं... अड्डाइज्जदीव... इत्यादि पाठ बोलते हुए...दुच्चरियं वोसिरामि" तक पाठ बोलें, यह सामायिकस्तव कहलाता है। 4. पुनः तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिकदण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति = छह आवर्त और दो शिरोनति होती है। 5. फिर सत्ताईस श्वासोश्वास परिमाण नौ बार नमस्कारमन्त्र का स्मरण करें। 6. भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें। इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो जाती है। 7. फिर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके 'थोस्सामिस्तव' पढ़ें। पुन: अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशतिस्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो जाती है। सामायिकस्तव सम्बन्धी छह आवर्त और दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव सम्बन्धी छह आवर्त और दो शिरोनति = 12 आवर्त एवं 4 शिरोनति हो जाती है। इतना कृतिकर्म करने के पश्चात 'जयतु भगवान्' इत्यादि चैत्यभक्ति पाठ पढ़ा जाता है।36
फलितार्थ है कि प्रतिक्रमण, देववन्दन, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान भक्ति पाठ के स्मरण द्वारा ही प्रारम्भ किये जाते हैं तथा भक्तिपाठ कायोत्सर्ग और कृतिकर्म करने के अनन्तर ही पढ़ा जाता है। यही कृतिकर्म विधि है।
• तुलनीय पक्ष से यह भी उल्लेख्य है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों की कृतिकर्म (द्वादशावर्त्तवन्दन) विधि में अन्तर है। श्वेताम्बर परम्परानुसार कृतिकर्म