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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ... 163
6. प्रमाण त्रिक- यह त्रिक कित्तिय वंदिय - महिया गाथा-6 के अनुसार है। इसमें कीर्त्तन के द्वारा स्तवन के रूप में, वंदन के द्वारा नमस्कार के रूप में और पूजन के द्वारा भक्ति के रूप में अरिहंत परमात्मा को प्रणाम किया गया है।
7. परिणाम त्रिक- यह त्रिक आरूग्ग - बोहिलाभ - समाहिवरमुत्तमं दिंतु गाथा - 6 पर आधारित है । परमात्मा की उपासना से, वंदन से, पूजन से क्या प्राप्त होता है ? हम परमतत्त्व की उपासना किस प्रयोजन से करते हैं? इस त्रिक में प्रत्येक का प्रयोजन प्रस्तुत किया गया है
कीर्त्तन अथवा संस्तवन का हेतु - आरोग्य है। वंदन का हेतु - बोधि है। पूजन का हेतु - उत्तम समाधि है।
8. प्रतीक त्रिक- यह त्रिक चंदेसु निम्मलयरा - आइच्चेसु अहियं पयासयरा-सागरवरगंभीरा गाथा - 7 के अनुसार है। जो आत्माएँ लोकाग्र भाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो गयी हैं, सर्व ज्ञाता है, सर्व दर्शी हैं, उनका प्रतीकात्मक स्वरूप किस रूप में वर्णित करें ? इस त्रिक में सिद्ध परमात्मा के तीन प्रतीक बतलाये गये हैं। लोक अवस्थान के अत्यन्त निकट प्रकृति ( ग्रह, नक्षत्र, समुद्र, पर्वत आदि) है तथा उसमें सूर्य चन्द्र और समुद्र- ये तीनों प्रधान हैं। अतः इस त्रिक के द्वारा अरिहंत प्रभु को इन तीन उपमानों से भी अनंत गुणा अधिक औपम्यवाला सिद्ध किया है। स्पष्ट है कि तीर्थंकर पुरुष चन्द्र, सूर्य और समुद्र से क्रमश: कई गुणा अधिक निर्मल, प्रकाशवान् और गंभीर हैं ।
9. प्रभाव प्रसारण त्रिक- यह त्रिक निम्मलयरा- पयासयरा - गंभीरा गाथा - 7 पर अवलम्बित है। इस त्रिक में तीर्थंकर को चंद्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाशवान् और सागर से अधिक गम्भीर कहकर उनका प्रभाव प्रकट किया है। साथ ही इन तीन गुणों के द्वारा तीर्थंकरों का अनिर्वचनीय महत्त्व दूर-दूर तक प्रसरित होता रहता है। दूसरे, निर्मलता, प्रकाशकता और गम्भीरता इन त्रिविध गुणों में शेष सर्व गुण भी समाविष्ट हो जाते हैं, फलत: सर्वज्ञ पुरुषों का प्रभाव निरन्तर प्रवर्द्धमान रहता है। इस तरह यह त्रिक परमात्मा के गुणों के अतिशय को दिग्दर्शित करता है। 61