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166...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में अविरति, राग और द्वेष- इन अठारह दूषणों से रहित हैं। इस प्रकार तीर्थंकर पुरुष प्रशमरस में निमग्न और पूर्णानंद स्वरूपी होते हैं। अरिहंत परमात्मा के इस आभ्यंतर स्वरूप का दर्शन, कीर्तन एवं स्तवन करने वाला साधक सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करता है। जिसके परिणाम स्वरूप सुख-दुख, मान-अपमान, लाभहानि, अनुकूल-प्रतिकूल आदि परिस्थितियों को समभाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है और तीर्थंकर बनने की पवित्र प्रेरणा मन में उबुद्ध होती है। यही इस आवश्यक का सारतत्त्व और मूल हार्द है। सन्दर्भ-सूची ___1. लोगस्ससूत्र एक दिव्य साधना, पृ. 7
2. अनगार धर्मामृत, 8/37 3. श्रीश्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र - प्रबोध टीका भा.-1, पृ. 197-198 4. नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिंद पडिमाओ। दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ।
चैत्यवंदनभाष्य, भा. 51 5. श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र-प्रबोध टीका, भा. 1, पृ. 594-595 6. अन्वर्थ नाम को नाम गोत्र कहा जाता है। 7. तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवन्ताणं णामगोयस्स वि सवणयाए।
राजप्रश्नीयसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र 11 8. त्वत्संस्तवेन भवसंतति सनिबद्धं, पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम्।
भक्तामरस्तोत्र, श्लो. 7 9. अजिअजिण! सुहप्पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम! नामकित्तणं।
___ अजितशांतिस्तव, गा. 4 10. आस्तामचिन्त्य महिमा जिन संस्तवस्ते । नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।
___ कल्याणमन्दिरस्तोत्र, श्लो. 7 11. एतेषामेकमप्यर्हन्नामुच्चारयन्नद्यैः । मुच्यते किं पुन: सर्वाण्यर्थज्ञस्तु जिनायते ॥
जिनसहस्रनाम, 143