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140... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
में प्रतिसमय लहरें उठती हैं और विलीन होती हैं फिर भी जल अपने स्वभाव से निश्चल ही रहता है उसी तरह द्रव्य भी प्रतिसमय अपनी पर्यायों से उत्पन्न और नष्ट होता रहता है फिर भी अपने स्वभाव से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता, सदा एकरूप ही रहता है। इस प्रकार काल के प्रभाव से होने वाले समस्त उत्तरोत्तर नये-नयेपन को एक साथ स्पष्ट रूप से जानने वाले जिनेश्वर परमात्मा हमारी रक्षा करें। भावस्तव ही यथार्थ स्तव है, क्योंकि केवलज्ञानादि गुणों का शुद्धात्मा के साथ अभेद सम्बन्ध है। 21
मूलाचार की टीका में नामस्तव आदि छः प्रकारों का निम्न अर्थ भी किया गया है- • जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष चतुर्विंशति मात्र का नामकरण करना, नामस्तव है। • तदाकार अथवा अतदाकार वस्तु में चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का आरोपण कर उनकी स्तुति करना, स्थापनास्तव है। • द्रव्यस्तव आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार का होता है। जो चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन का वर्णन करने वाले प्राभृत का ज्ञाता है, किन्तु उसमें उपयोगवान नहीं है ऐसा आत्मा आगम द्रव्यस्तव है। नो- आगम द्रव्यस्तव तीन भेदवाला है - 1. ज्ञायक शरीर 2. भावी शरीर और 3. तद्व्यतिरिक्त। चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन का वर्णन करने वाले प्राभृत के ज्ञाता का शरीर ज्ञायक शरीर है। चौबीस तीर्थंकरों के स्तव का वर्णन करने वाले प्राभृत को आगामी काल में जानने वाले व्यक्ति का शरीर भावी शरीर है।
• चौबीस तीर्थंकरों से युक्त क्षेत्र का स्तवन करना, क्षेत्रस्तव है। • चौबीस तीर्थंकरों से युक्त काल अथवा गर्भ, जन्म आदि का जो काल है उनका स्तवन करना कालस्तव है।
• भावस्तव, आगम-नो आगम की अपेक्षा दो प्रकार का है। चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन का वर्णन करने वाले प्राभृत के जो ज्ञाता हैं और जिनका उसमें उपयोग भी लगा हुआ है, ऐसी आत्मा का स्तव आगम भाव चतुर्विंशतिस्तव कहलाता है। जो चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के परिणाम से परिणमित है, उस आत्मा द्वारा किया गया स्तवन, नो आगम भावस्तव कहलाता है। 22 तीर्थंकर परमात्मा की स्तुति ही आवश्यक रूप क्यों ?
यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि जब कर्मक्षय की अपेक्षा सामान्य केवली और तीर्थंकर दोनों एक समान हैं और संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो तीर्थंकर की