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144...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में आत्मा जब यह विचार करती है कि ये तीर्थंकर दोष मुक्त हैं तब स्वयं के दोष भी स्मृति में उभरने लगते हैं और उन दोषों को दूर करने की भावना बलवान बनती है। इससे यह आत्मविश्वास जागता है कि जिस प्रकार तीर्थंकर दोषों से मुक्त हुए हैं उसी प्रकार मैं भी दोषमुक्त बन सकता हूँ।
तीसरा मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि किसी वस्तु या व्यक्ति से निवृत्त होने के लिए उससे निवृत्त होने वाले को स्वयं के समक्ष उपस्थित करना अति आवश्यक है। जब तक साधनाशील व्यक्ति के समक्ष कोई महान् आदर्श उपस्थित न हो, तब तक उसके द्वारा किसी वस्तु से निवृत्त होना कठिन है। सामायिक व्रती को सावध योगों, कषायादि वृत्तियों एवं विषयादि संकल्पों से निवृत्त होना आवश्यक है। तीर्थंकर भगवान सावध आदि सभी तरह के पापमय व्यापार से निवृत्त हो चुके हैं, इसलिए सावध योग से निवृत्त होने का उपदेश देते हैं और शुद्ध रूप से समभाव में स्थित है अत:सामायिक व्रती के लिए तदनुरूप तीर्थंकर पुरुषों का आलम्बन लेना अत्यावश्यक है।
इन्हीं मूल्यों की अपेक्षा चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का दूसरा स्थान है। चतुर्विंशतिस्तव (सद्भूत गुणोत्कीर्तन) का महत्त्व
अनुयोगद्वार में षडावश्यक के प्रकारान्तर से गुणनिष्पन्न छह नाम बताए गए हैं। आवश्यक की आराधना द्वारा जो उपलब्धि होती है अथवा जो करणीय है, उसका बोध जिनके द्वारा होता है। इनमें केवल नाम भेद हैं, अर्थ भेद नहीं है।
चतुर्विंशतिस्तव का गुणनिष्पन्न नाम ‘सद्भूत गुणोत्कीर्तन' बतलाया है। जिसमें स्वत्व और स्वसम्बन्धित्व का प्रवेश न हो, उस भावपूर्वक गुणों की प्रशंसा करना और उन गुणों के प्रति राग रखना, यही वास्तविक रूप से गुणप्रशंसा और गुणानुराग है। इस तरह का गुणानुराग स्वार्थ रहित होने के कारण भक्ति राग की
कोटि में ही गिना जाता है अत: इसका सम्बन्ध निर्जरा से है। .. जैन मन्तव्य के अनुसार यह ज्ञातव्य है कि अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में रहे हुए जीव स्वयं की भवस्थिति का परिपाक (उस पर्याय की कालावधि पूर्ण) होने पर सूक्ष्म निगोद से बाहर निकलते हैं वहाँ उनके लिए कर्म का क्षयोपशम अथवा अन्य कोई कारण बाहर निकलने में निमित्त नहीं होता है, मात्र भवस्थिति-काललब्धि ही प्रमुख होती है। तत्पश्चात ही वह जीव यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा कर्मों का क्षयोपशम करते हुए आगे बढ़ता है। आप्तपुरुष कहते हैं कि