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110... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
इच्छा करता हूँ' यह अधिक उचित है । अस्तु, इस प्रथम पद के अर्थ में विनय गुण का योग्य उपचार है ।
भंते - हे पूज्य ! यह पद गुरु के आमंत्रण रूप है, क्योंकि आवश्यक आदि सर्व प्रकार के धर्मानुष्ठान में उनकी आज्ञा जरूरी है। 179
'भंते' शब्द पूज्यभाव का बोधक है। 'भंते' शब्द के भदन्त, भवांत और भयांत - ऐसे तीन संस्कृत रूप बनते हैं। भदन्त का अर्थ- कल्याणवान अथवा सुखवान है, भवांत का अर्थ है - भव अर्थात संसार का अन्त करने वाला, भयांत का अर्थ है- भय अर्थात त्रास का अन्त करने वाला। गुरु की शरण में पहुँचने के बाद भव और भय का कहीं अस्तित्व नहीं रहता । 180
'भंते' का अर्थ भगवान भी होता है । यदि यह सम्बोधन वीतराग परमात्मा के लिए माना जाए, तब भी उचित है। सद्गुरु उपस्थित न हो, तब तीर्थंकर परमात्मा को साक्षी बनाकर अपना धर्मानुष्ठान शुरू कर देना चाहिए। अरिहंत हमारे हृदय की सब भावनाओं के द्रष्टा है, अतः उनकी साक्षी से धर्म साधना करना आध्यात्मिक क्षेत्र को परिपुष्ट करने हेतु अमोघ अमृत मन्त्र के तुल्य है। सामाइयं- सामायिक - समभाव की साधना ।
सामायिक-समय, समाय या सामाय पद का तद्धित रूप है। इसमें स्वार्थक 'इकण्' प्रत्यय जुड़कर यह शब्द सिद्ध हुआ है। इससे निम्न अर्थों का बोध होता है
सामायिक अर्थात सद्वर्तन, शास्त्रानुसारी शुद्ध जीवन जीने का प्रयत्न, विषमता का अभाव उत्पन्न करने वाली क्रिया, सर्व जीवों के प्रति मित्रता या बंधुत्व भाव रखने का प्रयास, राग और द्वेष को जीतने का परम पुरुषार्थ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की स्पर्शना, शांति की आराधना, अहिंसा की उपासना आदि सभी अर्थ व्यवहार दृष्टि पर आधारित हैं। तत्त्वतः समभाव में स्थिर रहना सामायिक है।
सावज्जं जोगं पच्चक्खामि - सावद्य - पापयुक्त, योग-व्यापार का त्याग करता हूँ।
मन, वचन और काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति योग कहलाती है। शुभ प्रवृत्ति पुण्य रूप और अशुभ प्रवृत्ति पाप रूप होती है । यहाँ 'योग' शब्द से पाप रूप प्रवृत्ति का ग्रहण है। कुछ लोग मानते हैं कि सामायिक करते समय जीव रक्षा का