________________
सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...111
कार्य नहीं कर सकते, किसी जीव पर दया नहीं कर सकते। उनका अभिप्राय यह है कि सामायिक में किसी पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए और जब हम किसी जीव को मरते हुए बचायेंगे तो उस पर अवश्य राग-भाव आएगा। बिना राग भाव के किसी को बचाया नहीं जा सकता। इस प्रकार उनकी दृष्टि में किसी मरते हुए जीव को बचाना भी सावध योग है।
इसका समाधान यह है कि सामायिक में सावध योग अर्थात पापमय कार्य, जीवहिंसा का त्याग ही अभीष्ट है, जीव दया का नहीं। यदि जीव-दया को भी पापमय कार्य के रूप में स्वीकार करेंगे, तब तो संसार में धर्म का कुछ अर्थ ही नहीं रहेगा। जीव-दया तो जैन धर्म का प्राण है। जब हम किसी प्राणी पर स्वार्थ या मोहवश दया करते हैं तब ही राग भाव कहा जा सकता है, जबकि सामायिक आदि धर्म क्रिया करते समय अथवा किसी भी अन्य समय, किसी जीव की रक्षा कर देना निष्काम प्रवृत्ति है अत: वह कर्म निर्जरा का कारण है, पाप का कारण नहीं।
जाव नियमं पज्जुवासामि- जब तक नियम है तब तक पर्युपासना करूंगा।
'जाव' शब्द मर्यादा सूचक और 'नियम' शब्द प्रतिज्ञा वाचक है। सामायिक-समभाव साधना की क्रिया है। राग और द्वेष पर विजय प्राप्त करने से समभाव सधता है अत: इस क्रिया का मुख्य सम्बन्ध चित्तशुद्धि से है। चित्तशुद्धि आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान का त्याग करने से तथा धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को धारण करने से होती है। यह ध्यान एक ही विषय पर अंतर्मुहूर्त या दो घड़ी से
अधिक स्थिर नहीं रह सकता। इस अपेक्षा से सामायिक का काल एक मुहूर्त सिद्ध होता है।
दुविहं तिविहेणं..... न कारवेमि. दो करण, तीन योग से अर्थात मन, वचन, काया रूप तीन योग से पाप जन्य प्रवृत्ति न करूंगा, न कराऊंगा।
सामायिकव्रती छः कोटि से अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करता है- 1. मन से अशुभ प्रवृत्ति करूंगा नहीं 2. कराऊंगा नहीं 3. वचन से अशुभ प्रवृत्ति करूंगा नहीं 4. कराऊंगा नहीं 5. काया से अशुभ प्रवृत्ति करूंगा नहीं 6. कराऊंगा नहीं। इस प्रकार सामायिक में हिंसा, असत्य आदि पाप कर्म का त्याग कृत और कारित रूप से ही किया जाता है अनुमोदन खुला रहता है।