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94...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
वह कालबद्ध नहीं होता, उसके लिए हर समय ही साधना का काल है। जैसेसाध हर क्षण सामायिक स्वरूप में रहता है किन्तु यहाँ साधारण व्यक्ति का प्रश्न है और उसके लिए नियमितता आवश्यक है।
उपाध्याय अमरमुनि ने कहा है- समय की नियमितता का मन पर जादुई प्रभाव होता है। उच्छृखल मन को यों ही अनियन्त्रित छोड़ देने से वह और भी अधिक चंचल हो उठता है। लौकिक जीवन में भी देखते हैं कि रोगी को समय पर औषधि दी जाती है, गुरुकुलों एवं शैक्षणिक स्थानों पर अध्ययन के लिए निश्चित समय होता है, साधारण व्यक्ति स्वयं के भोजन, शयन, व्यापार आदि का समय भी निश्चित रखते हैं। अधिक क्या कहें, दुर्व्यसन करने वाला मनुष्य भी नियत समय पर दुर्व्यसन करता है, जैसे अफीम खाने वाले व्यक्ति को ठीक नियत समय पर अफीम की याद आ जाती है और यदि उस समय न मिले, तो उसका चित्त चंचल हो उठता है। इसी प्रकार सदाचार के कर्तव्य भी निश्चित काल में किये जाने चाहिए। साधक को समय का अभ्यासी होना चाहिए।145
__ अब प्रश्न होता है कि सामायिक कब करनी चाहिए? यदि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक पृष्ठों का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाए तो श्वेताम्बर परम्परा के किसी भी मौलिक ग्रन्थ में यह चर्चा स्पष्ट रूप से की गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। हाँ! यह साधना न्यूनतम एवं अधिकतम कितने समय तक की जा सकती है? इसका उल्लेख तो स्पष्ट है, परन्तु वह कब करनी चाहिए? इसका प्रामाणिक सन्दर्भ देखने में नहीं आया है।
जहाँ तक दिगम्बर साहित्य का प्रश्न है वहाँ उभय संधिकाल एवं त्रिकाल दोनों पक्ष उपलब्ध होते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में सामायिक के लिए दिवस एवं रात्रि की दोनों सन्धि वेलाएँ स्वीकार की है146 जबकि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न- इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी सामायिक करने का निर्देश दिया गया है।147 आचार्य कुन्थुसागरजी ने बोधामृतसार में भी प्रातः, मध्याह्न और सायं ऐसे तीन कालों में सामायिकव्रत करने का विधान किया है।148 यों तो उपासकदशांगसूत्र के कुण्डकोलिक अध्याय में मध्याह्न में भी सामायिक करने का निर्देश है। यद्यपि यह विवाद उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। स्वरूपत: दोनों सन्धिकालों में सामायिक करना निम्नतम सीमा है।