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अर्थ- प्रथम निश्चय सूत्रार्थ देना, दूसरा निर्युक्ति सहित देना और तीसरा निर्विशेष (संपूर्ण) देना यह विधि अनुयोग अर्थात् अर्थ कथनकी है - इस सूत्र पाठसें तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य चूर्णि और टीका इनका समावेश होता है और ढूंढिये नहीं मानते हैं तो पूर्वोक्त पाठको कैसे सत्य कर दिखावेंगे ?
(८) श्रीसूयगडांग सूत्रके २१ में अध्ययन में कहा है कि:
अहागडाई भुजंति अण्ण मणे सकम्मुग्णा उवलित्ते वियाणिज्जा अणुवलित्तेति वा ॥ १ । पुणो एएहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो न विज्जइ एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जांग ॥२॥
ढूंढिये टीकाको नहीं मानते हैं तो इन दोनों गाथाओंका अर्थ क्या करेंगे ?
कितनेक कहते हैं कि टीकामें परस्पर विरोध है इस वास्ते हम नहीं मानते हैं इसका उत्तर- यदि शुद्ध परं परागत गुरुकी सेवा कर के तिनके समीप अध्ययन करें तो कोइ भी विरोध न पड़े, और जेकर विरोधके कारण से ही नहीं मानना कहते हो, तो बत्तीस सूत्रों के मूल पाठ में भी परस्पर बहुत विरोध पडते हैं-जैसे कि:: (१) श्रीजंबूद्वीप पन्नति सूत्रमें ऋषभ कूटका विस्तार मूल में आठ योजन, मध्य में छी योजन, और ऊपर चार योजन कहा है, फेर उसीमें ही कहा है कि ऋषभ कूटका विस्तार मूलमें बारी योजन मध्य में आठ योजन, और ऊपर चार योजन है बताइये एक ही सूत्र में दो बातें क्यों ?