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अर्थ-जिनाज्ञासे वाहिर उद्यम,और जिनाज्ञामें आलस,यह दोनों ही कर्मबंधके कारण हैं, हे शिष्य! यह दोनोंही तुझको न होवें। इस पाठसे जो मूढमति जिनाज्ञासे वाहिर धर्म मानते हैं,वो महामिथ्या दृष्टि हैं, ऐसे सिद्ध होता है।
(६) जेठा लिखनाहै कि "साधु नदी उतरते हैं सोतो अशक्य परिहार है" यह लिखना उसका स्वमतिकल्पनाका है, क्योंकि सूत्रकारने तो किसी ठिकाने भी अशक्य परिहार नहीं कहा है; नदी उतरनी सो तो विधिमार्ग है, इसवास्ते जेठे का लिखना स्वयमेव मिथ्या सिद्ध होता है।
(७) जेठा लिखता है कि "साधु नदी न उतरे तो पश्चात्ताप नहीं करते हैं, और जैनधर्मी श्रावक तो जिन पूजा न होवे तो पश्चाताप करते हैं" उत्तर-जैसे किसी साधुको रोगादि कारणसे एक क्षेत्र में ज्यादह दिन रहना पड़ता है तो उसके दिलमें मेरे से विहार नहीं हो सका, जुदे जुदे क्षेत्रों में विचरके भव्यजीवोंको उपदेश नहीं दिया गया, ऐसा पश्चात्ताप होता है;परंतु विहार करते हिंसा होती है सो न हुई उसका कुछ पश्चात्ताप नहीं होता है। तैसे ही श्रावकों को भी जिनभक्ति न होवे तो पश्चात्ताप होता है, परंतु स्नानादि न होनेका पश्चात्ताप नहीं होता है, इसवास्ते जेठेकी कुयुक्ति मिथ्या है।
इति ॥
(३८) पूजा सो दयाहै इस बाबता
३८ में प्रश्नोत्तरमें पूजा शब्द दयावाची है, और जिनपूजा अनुबंधे दयारूपही है, इसका निषेध करने वास्ते जेठेने कितनीक कुयुक्तियां लिखी हैं सो मिथ्या है, क्योंकि जिनराजकी