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स्थापना तीर्थंकर है, जैसे सर्व तीर्थंकर निर्वाणपदको पाकर सिद्ध होत े हैं तब वे द्रव्य तीर्थंकर होए हुए अनंत इकट्ठे होत े हैं त से स्थापनातीर्थंकर भी इकट्ठे स्थापे जाते हैं, तथा सिद्धायतनका विस्तारसे अधिकार श्रीजावाभिगम सूत्रमें कहा है, वहां भी एक सिद्धायतनमें एक सौ आठ जिनप्रतिमा प्रकटतया कही हैं, इस वास्ते जेठेका लिखा यह प्रश्न बिलकुल असत्य है, जेकर स्थापनासे भी इका होना होवे तो जंबूद्वीप में (२६९) पर्वत न्यारे न्यारे (जुदे जुदे) ठिकान हैं, उन सबको मांडलेमें एकत्र करकेअरेढूंढियों ! पोथी में क्यों बांधी फिरत हो ? तथा वो चित्राम लोगोंको दिखाते हो, समझाते हो, और लोग समझत े भी हैं, तो वे पर्वत जुदे २ हैं और शाश्वती वस्तुओं के एकत्र होने का अभाव है तो तुम इकट्ठे क्यों करते हो सो बताओ ? जेठा लिखता है कि "तीर्थंकर यहां विचरे वहां मरी और स्वचक परचक्रका भय न होवे तो जिन प्रतिमाके होते हुए भय क्यों होता है ? " - इसतरहके कुवचनों करके जेठा और अन्य ढूंढिये जिनप्रतिमाका महत्व घटाना चाहते हैं, परंतु मूर्ख ढूंढिये इतना भी नहीं समझते हैं कि वे अतिशय तो सिद्धांतकार ने भावतीर्थंकर के कहे हैं, और प्रतिमातो स्थापना तीर्थंकर है; इस वास्ते इस बाबत तुमारी कोई भी कुयुक्ति चल नहीं सक्ती है ॥ इति ॥
४२-ढूंढक मतिका गोशालामती तथा मुसलमानोंके साथ मुकाबला ।
४२ में प्रश्नोत्तर में जेठे निन्हवने जैन संवेगी मुनियों को गोशाले समान ठहराने वास्ते ( ११ ) बोल लिखे हैं परंतु उनमें से एक