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वोल भी जैन संवेगी मुनियोंको नहीं लगाता है, वे सर्व बोल तो ढूंढियोंके ऊपर लगते ह और इससे वे गोशालामति समान हैं ऐसे निश्चय होता है।
(१) पहिले बोलमें जेठेने मूर्खवत् असंबद्ध प्रलाप करा है, परंतु उसका तात्पर्य कुछ लिखा नहीं है, इसबास्ते उसके प्रत्युत्तर लिखनेकी कुछ जरूरत नहीं है।
... (२) दूसरे बोलमें जेठा लिखता है कि-"ढूंढियोंको जैनमुनि तथा-श्रावक सताते हैं"उत्तर-जेले सूर्य को देखके उल्लूकी आंखें बंद हो जाती हैं,और उसके मनको दुःख उत्पन्न होता है तैसेही शुद्ध साधुको देखके गोशालामति समान ढूंढियोंके नेत्र मिलजाते हैं,
और उनके हृदय में स्वमेव सताप उत्पन्नहोता है, मुनिमहाराजा किसीको संताप करनेका नहीं इच्छते हैं,परंतु सत्यके आगे असत्य का स्वयमेव नाश होजाता है।
(३) तीसरे बोलमें "जैनर्मियोंने नये ग्रंथ बनाये हैं। ऐसे , जेठा लिखता है, परंतु जो जो ग्रंथ बने हैं, वो सर्व ग्रंथ गणधर महाराजा,पूर्वधारो तथा पूर्वाचार्योंकी निश्रायसे बने हैं,और उनमें कोई भी बात शास्त्रविरुद्ध नहीं है; परंतु इंढियोंको ग्रंथ वाचने ही नहीं आते हैं तो नये बनाने की शक्ति कहां से लावें ? फकत ग्रंथकर्ताओंकी कीर्ति सहन नहीं होनेसे जेठेने इसतरह लिखके पूर्वाचार्यों की अवज्ञा करी है।
(१)चौथेबोलमें"मंत्रजंत्रज्योतिष वेदक करके अजीविका करते हो" ऐसे जेठेने लिखा है, ओ असत्य है क्योंकि संवेगी मुनि तो मंत्र जंत्रादि करते ही नहीं है ढूंढियेसाधु मंत्र,जत्र,ज्योतिष,वैद्यक