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मूर्त्तिका दर्शन नहीं करा है, उनके नेत्र धूयेंकी शिखा समान है; अर्थात् जिनप्रतिमासे विमुख रहने वालोंके हृदय, मुख और नेत्र निरर्थक हैं; और जो बुद्धिमान् भगवंतकी प्रतिमाकी उपासनाअर्थात् भक्ति पूजा प्रमुख करते हैं उनका मनुष्यजन्म पवित्रअर्थात् सफल है । इस पूर्वोक्त काव्य के सारको स्वहृदयमें आंकत करके और इस ग्रंथको आद्यंत पर्यंत एकाग्रचित्त से पढ़कर ढूंढकमती अथवा जो कोई शुद्धमार्ग गवेशक भव्यप्राणी सम्यक् प्रकारसे निष्पक्षपात दृष्टिसे विचार करेंगे तो उनको भ्रांतिसे रहित जैनमार्ग जो संवेग पक्ष में निर्मलपणे प्रवर्त्तमान है सो सत्य और ढूंढक वगैरह जिनाज्ञा से विपरीतमत असत्य है ऐसा निश्चय हो जावेगा; और ग्रन्थ बनाने का हमारा प्रयत्न भी तबही साफल्यताको प्राप्त होगा ॥
शुद्धमार्ग गवेशक और सम्यक्त्वाभिलाषी प्राणियोंका मुख्य लक्षण यही है कि शुद्ध देव गुरु और धर्मको पिछानके उनका अंगीकार करना और अशुद्ध देव गुरु धर्मका त्याग करना, परंतु चित्तमें दंभ रखके अपना कक्का खरा मान बैठके सत्यासत्यका विचार नही करना, अथवा विचार करनेसे सत्यकी पिछान होनेसे अपना ग्रहण किया मार्ग असत्य मालूम होनेसे भी उसको नहीं छोड़ना, और सत्यमार्गको ग्रहण नही करना, यह लक्षण सम्यक्त्व प्राप्तिकी उत्कंठावाले जीवोंका नहीं है, और जो ऐसे होवे, तो हमारा यह प्रयत्नभी निष्फल गिनाजाचे इसवास्ते प्रत्येक भव्य प्राणीको हठ छोड़के सत्यमार्गके धारण करनेमें उद्यत होना चाहिये ॥
यह ग्रन्थ हमने फक्त शुद्धबुद्धिसे सम्यकदृष्टिजीवों के सत्यासत्य के निर्णय वास्ते रचा है, हमको कोई पक्षपात नहीं है, और किसी पर द्वेषबुद्धि भी नहीं है इसवास्ते समस्त भव्यजीवों
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