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(), जेठेने जैनधर्मियोको झूठा कलंक दीया है, क्योंकि ऐसी श्रद्धा किसी भी जैनीकी नहीं है जेठा इस बातमें भक्तिकी भिन्नताको कारण बताता है परंतु जैनी जिसरीतिसे जिसकी भक्ति करनी उचित है उसरीतिसे उसकी भक्ति करते हैं,देवकी भक्ति जल,कुसुम से करनी उचित है, और गुरुकी भक्ति बंदना नमस्कारसे करनी उचित है, सो उसीरीतिसे श्रावकजन करते हैं। - अक्षकी स्थापना का निषेध करने वास्ते जेठेने अक्षको हाड लिखके स्थापनाचार्यकी अवज्ञा,निंदा तथा आशातनाकरी है, सो उसकी मूर्खता है; क्योंकि आवश्यक करने समय अक्षके स्थापनाचार्यकी स्थापना करनी श्रीअनुयोगद्वारसूत्रके मूल पाठ में कही है कि "अक्खेवा" इत्यादि "ठवण ठविज्जइ” अर्थात् अक्षादिकी स्थापना स्थापनी; सो उस मुजिब अक्षकी स्थापना करते हैं, तथा श्री विशेषावश्यक सत्र में लिखा है कि “गुरु विरहम्मिय ठवणा" अर्थात् गुरु प्रत्यक्ष न होवे तो गुरुकी स्थापना करनी और तिसको द्वादशावर्त वंदना करनी, जेठेने स्थापनाचार्यको हाड कह कर अशातना करी है, हम पूछते भी है कि ढूंढिये अपने गुरुको वंदना नमस्कार करते हैं उसका शरीर तो हाड, मास, रुधिर,तथा विष्टा से भरा हुआ होता है तो उसको वंदना नमस्कार क्यों करते हैं.? इसवास्ते प्यारे ट्रॅडियो ! विचार करो, और ऐसे कुमतियों के जालमें फंसना छोड़के सत्यमार्गको अंगीकार करो॥
इंढिये शास्त्रोक्त विधि अनुसार स्थानाचार्य स्थापे विनाप्रतिक्रमणादि क्रिया करते हैं उनको हम पूछते हैं कि जब उनको प्रत्यक्ष गुरु का विरह होता है, तब वोह पडिकमणेमें वंदना किसको करते हैं? तथा "अहोकायं कार्य संफासं" इस पाठसे गुरुकी अधोकाया